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शुक्रवार, दिसंबर 9

चिड़िया और आदमी


चिड़िया और आदमी


चिड़िया भोर में जगती है 

उड़ती है, दाना खोजती है 

दिन भर फुदकती है 

शाम हुए नीड़ में आकर सो जाती है 

दूसरे दिन फिर वही क्रम 

नीले आसमान का उसे भान नहीं 

हरे पेड़ों का उसे भान नहीं 

हवाओं,सूरज, धूप का उसे भान नहीं 

परमात्मा का उसे भान नहीं 

पर वह मस्त है अपने में ही मग्न 

और उधर आदमी 

उठता है चिंता करता है 

चिंता में काम करता है 

चिंता में भोजन खाता है 

चिंता में ही सो जाता है 

उसे भी नीला आकाश दिखायी नहीं देता 

हज़ार नेमतें दिखाई नहीं देतीं 

परिजन व आसपास के लोग दिखाई नहीं देते 

बस स्वार्थ सिद्धि में लगा रहता है 

तब आदमी चिड़िया से भी छोटा लगता है 


बुधवार, नवंबर 9

भारत



भारत 

‘देने’ को कुछ न रहा हो शेष 
जब आदमी के पास 
तब कितना निरीह होता है वह 
देना ही उसे आदमी बनाये रखता है 
मांगना मरण समान है 
खो जाता जिसमें हर सम्मान है !
देना जारी रहे पर किसी को मांगना न पड़े 
ऐसी विधि सिखा रहा आज हिंदुस्तान है !
पिता जैसे देता है पुत्र को 
माँ  जैसे बांटती है अपनी सन्तानों को 
उसी प्रेम को 
भारत के जन-जन में प्रकट होना है 
ताकि ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ 
मानने वाली इस संस्कृति की 
बची रहे आन, आँच न आए उसे !
जहां अनुशासन और संयम 
केवल शब्द नहीं हैं शब्दकोश के 
यहां समर्पण और भक्ति
 कोरी धारणाएं नहीं हैं !
यहां परमात्मा को सिद्ध नहीं करना पड़ता 
वह विराजमान है घर-घर में 
कुलदेवी, ग्राम देवी और भारत माता के रूप में 
वह देश अब आगे बढ़  रहा है !
और दिखा रहा है सत्मार्ग 
विश्व को अपने शाश्वत ज्ञान से ! 

सोमवार, मई 17

आदमी


आदमी 

राहबर आये हजारों इस जहाँ में 
आदमी फिर भी भटकता है यहाँ पर !

बेवजह सी बात पर भौहें चढ़ाता  
राह तकता है भला बन शांति की फिर

आदतों के जाल में जकड़ा हुआ पर 
किस्से मुक्ति के सुनाता जोश भर कर  

खुद ही गढ़ता बुत उन्हीं से मांगता 
जाने कितने स्वांग भरता भेष धर कर 

इस हिमाकत पर न सदके जाये कौन 
हर युद्ध करता शांति का नाम लेकर  !

उल्टे-सीधे काम भी सभी हो रहे 
है रात-दिन जब मौत का जारी कहर  !
 

मंगलवार, अप्रैल 6

कोरोना काल

कोरोना काल 

यह भय का दौर है 

आदमी डर रहा है आदमी से 

गले मिलना तो दूर की बात है 

डर लगता है अब तो हाथ मिलाने से 

 घर जाना तो छूट ही गया था

 पहले भी अ..तिथि बन  

अब तो बाहर मिलने से भी कतराता है 

एक वायरस ने बदल दिए हैं सारे समीकरण 

दूरी बनी रहे किसी तरह 

इसका ही बढ़ रहा है चलन 

डरा हुआ आदमी हर बात मान लेता है 

बिना बुखार के भी गोली फांक लेता है 

सौ बार धोता है हाथ 

नकाब पहन लेता है 

वरना एक को हुआ जुकाम तो 

सारा घर कैदी हो जाता है 

घर में अजनबी बन जाते हैं लोग अब 

दूसरे कमरे में बैठी 

माँ मानो चली गई हो दूसरे गाँव 

इस डर ने छीन ली है आजादी 

छीन ली है खुले बरगद की छाँव 

 दौर ही ऐसा है 

यह डरने और डराने का

यहाँ बस काम से काम रखना 

किसी की ओर नजर भी नहीं उठाने का ! 


 

सोमवार, नवंबर 23

आदमी

आदमी



 कली क्या करती है फूल बनने के लिए

विशालकाय हाथी ने क्या किया

निज आकार हेतु

व्हेल तैरती है जल में टनों भार लिए

वृक्ष छूने लगते हैं गगन अनायास

आदमी क्यों बौना हुआ है

शांति का झण्डा उठाए

युद्ध की रणभेरी बजाता है

न्याय पर आसीन हुआ

अन्याय को पोषित करता है

अन्न से भरे हैं भंडार चूहों के लिए

भूखों को मरने देता है

पूरब पश्चिम और पश्चिम पूरब की तरफ भागता है

शब्दों का मरहम बन सकता था

 उन्हें हथियार बनाता है

एक मन को अपने ही

 दूसरे मन से लड़वाता है

लहूलुहान होता फिर भी देख नहीं पाता है

यह अनंत साम्राज्य जिसका है

वह बिना कुछ किए ही कैसे विराट हुआ जाता है !

गुरुवार, सितंबर 24

दूर बहुत दूर कहीं

 दूर बहुत दूर कहीं 

आदमी बेबस हुआ 

पर कहाँ मानता है 

खुद को बचाने हेतु 

और को मारता है !

क्या है ? जानता नहीं 

खो गयी याद सारी

जानना नहीं चाहे 

भटका कोई प्राणी 

अपना ही घात करे 

चेतना ही सो गयी 

स्वयं से चला आया 

दूर बहुत दूर कहीं 

वापसी का पथ नहीं 

 कैसी यह माया है 

मर रहे हैं जन यहाँ 

महामारी नहीं कम  

आत्मघाती बन रहे  

ना जाने क्या है  गम 

जीवन की कदर नहीं 

छीन लिया जायेगा 

कुदरत का यही नियम 

जिसको ना मान दिया 

वही छोड़ जायेगा !


गुरुवार, दिसंबर 19

आदमी





आदमी

सुलगता इक सवाल बन गया है आदमी 
चेतना ज्यों सो गयी 
शरम-हया खो गयी 
गली गली दानव हैं 
मनुष्यता रो गयी 
जूझता  इक बवाल बन गया है  आदमी 
आधी रात तक जगे 
भोर नींद में कटे 
देवों का ध्यान नहीं 
नियम वरत सब मिटे
उलझता इक ख्याल बन गया है आदमी 
हवा धुऑं धुआँ हुई 
सूरज भी छुप गया  
अपने ही हाथों से
 जहर ज्यों घोल दिया 
'नादान' इक  मिसाल बन गया है आदमी 
अपने ही देश में 
तोड़-फोड़ कर रहा 
सभ्यता की दौड़ में 
अनवरत पिछड़ रहा 
वाकई  इक जमाल बन गया है आदमी

गुरुवार, नवंबर 3

कविता झुलस रही है

 कविता झुलस रही है 

कविता झुलस रही है उस आग में
लगा रहा है जो कोई सिरफिरा
अनगिनत स्वप्न और निशान नन्हे कदमों के
 दफन हो गये जिसकी राख में
उन कक्षाओं की चहकती आवाजें
खो गयीं जैसे बियाबान में
स्कूल की घंटी से बढ़
क्या हो सकता है कोई गीत किसी बच्चे के लिए
जिसमें गाता है उसका भविष्य
सारी समझ आदमी ने
गिरवी रख दी है जैसे
जो जमीन के एक टुकड़े की खातिर
मार रहा है इंसानियत की जागीर
कितना कठिन है वक्त का दौर
जब मर रहे हैं लोग
और दिखाई जाती है उनकी तस्वीर !


बुधवार, जून 25

भूलना फितरत हमारी


भूलना फितरत हमारी


हर कदम पर इक चुनौती हर कदम पर इक दोराहा
हर कदम इक होश माँगे दे झलक उसकी जो चाहा

भूलना फितरत हमारी भूल जाते हर खुदाई
पुनः तकते आसमां को रिश्ता हर उसने निबाहा

जाने कैसी फांस भीतर आदमी के दिल में है
गुलशनों को काट उसने मरूथलों को है सराहा

क्या नहीं है पास उसके जाने क्या फिर खोजता
इक ललक सोने न देती बड़ी शिद्दत से कराहा

कैद अपने कब्र में है मौत से पहले हुआ
जिन्दगी जी भी न पाया मृत्यु का आया चौराहा  

गुरुवार, अप्रैल 3

तब और अब


तब और अब

देहें तब चमकदार हुआ करती थीं
जिनमें देवों का वास था
थी आदमी और देवता में एक आत्मीयता
और सहयोग की भावना
मनों की शक्तियाँ अकूत थीं
वनस्पतियाँ तक अपने राज खोलती थीं
ध्यान में लीन ऋषि से
गुण धर्म बोलती थीं
दूर नक्षत्रों तक सहज ही गमन करते थे ध्यानी
परमात्मा से तब तक मानव ने रार नहीं थी ठानी
धीरे-धीरे हुई विस्मृति
मद, मान और मोह ने की अवनति
देहें अब मात्र खाद्यान्न भरने का यंत्र हैं
देवों को किया देवालयों में बंद है
दोनों कभी-कभी मिलते हैं
अधिक तो उनके होने पर ही संशय करते हैं
विमुग्ध है मानव निज ज्ञान पर
वंचित है किस सुख से यह भी नहीं जानता
अपने ही स्रोत के अस्तित्त्व को नहीं मानता...

शुक्रवार, फ़रवरी 21

आदमी फिर भी भटकता है

आदमी फिर भी भटकता है

राहबर आये हजारों इस जहाँ में
आदमी फिर भी भटकता है !

जरा सी बात पर भौहें चढ़ाता यह
फिर शांति की राह तकता है !

आदतों के जाल में जकड़ा हुआ पर
मुक्तियों के गीत गढ़ता है !

खुद ही गढ़ता बुत उन्हीं ही मांगता
जाने कितने स्वांग भरता है !

इस हिमाकत पर न सदके जाये कौन
शांति के वास्ते युद्ध करता है !

उलटे-सीधे काम भी होते रहेंगे
 रात-दिन जब शंख बजता है !

मंगलवार, दिसंबर 24

नया वर्ष आने वाला है




नया वर्ष आने वाला है  

धरती ने की पूर्ण सूर्य की
इक परिक्रमा देखो और,
बीत गयीं कुछ अमावसें व
जगीं पूर्णिमाओं की भोर !

पुनः ली करवट ऋतु चक्र ने
सहज पुकारे है जीवन,
हुई शोख रंगत फूलों की
सुन भ्रमरों की बढ़ती गुंजन !

अनल गगन की नव रश्मि से
हम भी तो भीतर सुलगा लें,
भरकर भीतर नई ऊष्मा
कुहरा मन का छंट जाने दें !

करें पूर्ण जो रहा अधूरा
जो छूटे संग उन्हें ले लें,
धूल सा झाड़ें जो अनचाहा
तज अतीत हल्के हो लें !

उम्मीदों की धूप जगाएं
ख्वाब भरें सूनी आँखों में,
रब ने दी जिन्दगी जिनको
न्याय मांगते पर राहों में !

प्रेम जग दिलों में उनके 
लोभ, स्वार्थ जहाँ है भारी,
नये वर्ष में यही प्रार्थना,
कोई न भूखा, न लाचारी !

नहीं घुले जहर मिट्टी में
हों निर्मल नदियों के जल,
शुद्ध हवाएं, कटें न जंगल
तंग न हो किसी का दिल !

बेवजह गमजदा आदमी
जागे वह खुद को पहचाने,
नहीं गुलामी करे किसी की
आजादी का सुख भी जाने !

एक नयी आस्था भीतर  
जीवन का आधार बने,
जीत सत्य की ही होगी
पुनः यही हुंकार उठे !

भय से नहीं प्रेम से जोड़ें
शुभ संस्कृतियाँ पुनः खिलें,
नया वर्ष आने वाला है  
खुशियों की सौगात मिले !

शुक्रवार, अगस्त 30

खो गया है आदमी

खो गया है आदमी

भीड़ ही आती नजर  
खो गया है आदमी,
इस जहाँ की इक फ़िकर
 हो गया है आदमी !

दूर जा बैठा है खुद
फ़ासलों की हद हुई,
हो नहीं अब लौटना
जो गया है आदमी !

बेखबर ही चल रहा
पास की पूंजी गंवा,
राह भी तो गुम हुई
धो गया है आदमी !

बांटने की कला भूल
संचय की सीख ली,  
बंद अपने ही कफन में
सो गया है आदमी !

श्रम बिना सब चाहता
नींद सोये चैन की,
मित्र बन शत्रु स्वयं का
हो गया है आदमी !

प्रार्थना भी कर रहा  
व्रत, नियम, उपवास भी,
वश में करने बस खुदा  
लो गया है आदमी !