अमृत बन कर वह ढलता है
उससे परिचय होना भर है 
कदम-कदम पर वह मिलता है, 
उर का मंथन कर जो पाले 
परम प्रेम से मन खिलता है ! 
भीतर के उजियाले में ही 
सत्य सनातन झलक दिखाता, 
कण-कण में फिर वही छिपा सा  
साँस-साँस  में भीतर आता ! 
पहले आँसू जगत हेतु थे 
अब उस पर अर्पित होते हैं 
अंतर भाव पुष्प माला बन  
अंतर के तम को धोते हैं ! 
पात्र अगर मन बन पाए तो 
अमृत बन कर वह ढलता है, 
हो अर्पित यदि हृदय पतंगा 
ज्योति बना अखंड जलता है ! 
शुभ संकल्प उठें जब मन में 
भीतर इन्द्रधनुष उगते हैं, 
सुंदरता भी शरमा जाये 
अमल सहस्र कमल खिलते हैं !

 
शुभ संकल्पों के आधार पर जो इन्द्रधुनष हमारे भीतर उगते हैं, उसी अनुभव की झांकी दिखाती यह कविता।
जवाब देंहटाएंकविता के मर्म को परखने के लिए स्वागत व आभार विकेश जी !
हटाएंआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन बलराम जाखड़ और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएंसत्य ! उससे परिचय होना भर है !
जवाब देंहटाएंफिर तो हम उसकी ओर एक कदम बढ़ाएँ वह स्वयं दौड़कर आता है मिलने । जीवन में इसी सत्य का अनुभव अनेकों बार हुआ है।
आपके सुखद अनुभव को पढ़कर प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है, स्वागत व आभर मीना जी !
हटाएं