तिर जाओ पात से
सुनो ! तारे गाते
हैं
फूलों के झुरमुट..
प्रीत गीत गुनगुनाते हैं
पल भर को निकट
जाओ वृक्षों के
कानों में कैसी,
धुन भर जाते हैं !
देखो ! गगन तकता
है
बदलियों का झुंड
झूम-झूम कर बरसता है
ठिठको जरा सा.. बैठो,
हरी घास पर
पा परस दिल..
कैसे धड़कता है !
बहो ! कलकल बहती
है
नदिया की धारा
नाच बात यही कहती है
पात से तिर जाओ नीर
संग
हृदय की तृषा
मिटे, छांव वह मिलती है !
जगो ! उषा जगाती है
हर भोर उसी का
संदेश लेकर आती है
आतुर है प्रकृति
लुटाने को
ज्योति भरे नित
नवीन, अंकुर उगाती है !
रचना बहुत ही अच्छी है ,सुन्दर !
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार ध्रुव जी !
हटाएंवाह बहुत खूब ....
जवाब देंहटाएंमंगलकामनाएं आपको !
स्वागत व आभार सतीश जी !
हटाएंसुन्दर ... आशा और जीवन अनुराग का संचार करती है आपकी रचना ...
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार दिगम्बर जी !
हटाएंआप भी तो एक धुन सी ही भर जाती हैं । मधुर - मधुर बजती हुई ।
जवाब देंहटाएंवाह कितनी मधुर प्रतिक्रिया...स्वागत व आभार अमृता जी..सभी कविताओं पर आपकी सरस उपस्थिति के लिए !
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