गीत अंतर में छिपा है
शब्द कुछ सोये
हुए से
भाव कुछ-कुछ हैं
अजाने,
गीत अंतर में
छिपा है
सृजन की कुछ बात
कर लें !
बीज भीतर चेतना
का
फूल बनने को
तरसता,
बूंद कोई कैद
भीतर
मेघ बन चाहे
बरसना !
आज दिल से कुछ
रचें हम
मन नहीं यूँ
व्यर्थ भटके,
तृषा आतुर तृप्त होगी
ललक जब अंतर से
प्रकटे !
संग गगन आँख
मींचे
आज कुछ नव गीत
गाएं,
मुक्त होकर करें
विचरण
सुरों के पौधे
लगायें !
सूखते मानवीय अंतरघटों को नवचेतना से नवगीत गाने-गुनगुनाने की प्रेरणा देती सुन्दर गीतिका
जवाब देंहटाएंसुंदर शब्दों में तुरंत प्रतिक्रिया देने के लिए आभार विकेश जी !
हटाएंबहुत सुन्दर...
जवाब देंहटाएंबीज भीतर चेतना का
फूल बनने को तरसता...
लाजवाब प्रस्तुति...
स्वागत व आभार सुधा जी !
हटाएंआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना…. - शैलेन्द्र और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार हर्षवर्धन जी !
हटाएंसुन्दर भाव
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