मंगलवार, नवंबर 27

स्वर्ण रश्मियों सा छू लेता




स्वर्ण रश्मियों सा छू लेता



माँ शिशु को आँचल में छुपाती
आपद मुक्त बनाती राहें,
या समर्थ हथेलियाँ पिता की
थामें उसकी नन्हीं बाहें !

वैसे ही सिमटाये अपने
आश्रय में कोई अनजाना,
उस अपने को, जिसने उसकी
चाहत को ही निज सुख माना ! 

अपनाते ही उसको पल में 
बंध जाती है अविरत डोर,
वंचित रहे अपार नेह से
 जो मुख न मोड़े उसकी ओर !

जो बेशर्त बरसता निशदिन 
निर्मल जल धार की मानिंद,
स्वर्ण रश्मियों सा छू लेता
अमल पंखुरियों को सानंद !

कर हजार फैले चहूँ ओर
थामे हैं हर दिशा-दिशा से,
दृष्टिगोचर कहीं ना होता
पर जीवन का अर्थ उसी से !

15 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 29.11.2018 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3170 में दिया जायगा

    धन्यवाद

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  2. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन भालजी पेंढारकर और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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  3. बहुत बहुत आभार हर्षवर्धन जी !

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  4. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार 30 नवंबर २०१८ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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  5. वाह बहुत सुन्दर परिकल्पना से सजा सुंदर अलंकृत काव्य।

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  6. सच में जीवन का अर्थ उसी अदृष्ट शक्ति के हाथ में ही है...बहुत सारगर्भित प्रस्तुति..

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  7. जीवन का अर्थ तो आपकी मधुर पंक्तियों में उभर के आ रहा है ...
    सार्थक और दार्शिन्कता लिए आपकी रचना अलग संसार में ले जाती है ... सुन्दर भावपूर्ण रचना है ...

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  8. अनुराधा जी, शुभा जी, कुसुम जी, कैलाश जी, सुधा जी, ओंकार जी व दिगम्बर जी, आप सभी का तहे दिल से स्वागत व आभार !

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  9. बहुत खूबसूरत रचना अनीता जी

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