घाटियाँ जब खिलखिलायीं 
बह रही थी नदी उर
की 
बने पत्थर हम अड़े
थे,
सामने ही था
समुन्दर 
नजर फेरे ही खड़े
थे !
गा रहा था जब
कन्हैया 
बांसुरी की धुन
सुनी ना,
घाटियाँ जब
खिलखिलायीं 
राह भी उनकी चुनी
ना !
भीगता था जब चमन
यह 
बंद कमरों में
छिपे थे, 
चाँद पूनो का
बुलाता 
नयन स्वप्नों से
भरे थे ! 
सुख पवन शीतल बही
जब 
चाहतों की तपिश
उर में, 
स्नेह करुणा वह
लुटाता
मांगते थे
मन्दिरों में !
आज टूटा भरम सारा
झूमती हर इक दिशा
है,
एक से ही नूर
बरसे 
प्रातः हो चाहे
निशा है !

आज टूटा भरम सारा
जवाब देंहटाएंझूमती हर इक दिशा है,
एक से ही नूर बरसे
प्रातः हो चाहे निशा है !
...बहुत गहन और सार्थक चिंतन..बहुत सुन्दर और काव्यमय प्रस्तुति...
बहुत सुन्दर भाव ...
जवाब देंहटाएंजब जागो तब सवेरा ... जब आत्मज्ञान हो जाये तो क्या निशा क्या भोर ...
जब सही राह मिल जाएगी तो सब कुछ दिखाई देगा ... प्राकृति गीत गाएगी ...
सही कहा है आपने, जब दृष्टि बदलती है सृष्टि भी बदल जाती है..
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