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शुक्रवार, दिसंबर 14

घाटियाँ जब खिलखिलायीं


घाटियाँ जब खिलखिलायीं

बह रही थी नदी उर की
बने पत्थर हम अड़े थे,
सामने ही था समुन्दर
नजर फेरे ही खड़े थे !

गा रहा था जब कन्हैया
बांसुरी की धुन सुनी ना,
घाटियाँ जब खिलखिलायीं
राह भी उनकी चुनी ना !

भीगता था जब चमन यह
बंद कमरों में छिपे थे,
चाँद पूनो का बुलाता
नयन स्वप्नों से भरे थे !

सुख पवन शीतल बही जब
चाहतों की तपिश उर में,
स्नेह करुणा वह लुटाता
मांगते थे मन्दिरों में !

आज टूटा भरम सारा
झूमती हर इक दिशा है,
एक से ही नूर बरसे
प्रातः हो चाहे निशा है !
 


गुरुवार, अप्रैल 26

कोई देख-देख हँसता है



कोई देख-देख हँसता है

आँख मुँदे उसके पहले ही
क्यों ना खुद से नजर मिला लें,
अनदेखे, अनजाने से गढ़
भेद अलख के मोती पा लें !

कितना पाया पर उर रीता
झांकें, इसकी पेंदी देखें,
कहाँ जा रहा आखिर यह जग
तोड़ तिलिस्म जाग कर लेखें !

बार-बार कृत-कृत्य हुआ है
फिर क्यों है प्यासा का प्यासा,
किस कूँए से तृषा बुझेगी
आखिर इसको किसकी आसा !

सुंदरता को बाँध न पाया
देखे कितने सागर, पर्वत,
कहीं और कुछ छूटा जाता
सदा बनी पाने की हसरत !

सुख का आकांक्षी यह उर है
जाने किसकी राह जोहता,
पा पाकर भी कुछ ना पाया
ज्यों तामस में बाट टोहता !

मंजिल पर बैठा राही जब
राह पूछता बन अनजाना,
कोई देख-देख हँसता है
जैसे खेले इक दीवाना !

शुक्रवार, फ़रवरी 9

अनुरागी मन



अनुरागी मन

कैसे कहूँ उस डगर की बात
चलना छोड़ दिया जिस पर
अब याद नहीं
कितने कंटक थे और कब फूल खिले थे
 पंछी गीत गाते थे
या दानव भेस बदल आते थे
अब तो उड़ता है अनुरागी मन
भरोसे के पंखों पर
अब नहीं थकते पाँव
' न ही ढूँढनी पड़ती है छाँव
नहीं होती फिक्रें दुनिया की
 उससे नजर मिल गयी है
घर बैठे मिलता है हाल
सारी दूरी सिमट गयी है !

मंगलवार, मार्च 5

मन बहता हुआ इक धारा था जब


मन बहता हुआ इक धारा था जब


डोलने लगे थे पात पीपल के
जरा नजर भर के निहारा था जब,
तरल हो गया था आलम सारा
निःशब्द होकर उसे पुकारा था जब !

है भी जो, नहीं भी, नजर आया था
दूर सागर का किनारा था जब,
झील का चाँद किसी की खबर लाया
पार उतरने को शिकारा था जब !

मिलीं ढेर नसीहतें, संग उसके
दिल को बस यही न गवारा था जब,
बहा ले गया गम, खुशियाँ सारी
मन बहता हुआ इक धारा था जब ! 

बुधवार, जनवरी 9

स्वयं में भी जीवन उगता है


स्वयं में भी जीवन उगता है


सबको खुश करते करते ही
हँसना हम स्वयं भूल गए,  
सबको अपने पास किया था
खुद से ही दूर निकल गए !

भय ही एक सूत्र में बांधे
प्रेम कहाँ दीखे जग में,
मिले अभय जब थामें खुद को
फूल झरा करते मग में !

जो स्वभाव में टिकना सीखे
वही खुशी को पा सकता है,
जिसने खुद को पाया खुद में
वही खुदा तक जा सकता है !

नजर हटे जब अन्यों से तो
स्वयं में भी जीवन उगता है,
भीतर एक उजाला भरता
निर्झर कोई झर-झरता है !

क़ुरबानी के नाम पे अक्सर
दर्द दिया खुद को हमने,
इसी दर्द को बांटा जग में
फिर क्यों उठे शिकायत मन में !

जो आनंद से भर जाता है
वही सुगंध बिखेरे जग में,
वही वृक्ष छाया दे सकता
जो भर जाता है खुद में !

पहले खुद को प्रेम से भर लें
शेष सहज ही सब घटता है,
न भीतर कुछ हानि होती
बल्कि हर सुख बढता है !


गुरुवार, जून 7

मौन का उत्सव


मौन का उत्सव

ठठा कर हँसा वह
नजरें जो टिकीं थीं सामने
लौटा लीं खुद की ओर
और तभी गूंज उठा था सारा जंगल
उस मुखर अट्टाहस से....
ठिठक गए पल भर को
आकाश में गरजते मेघ
सुनने उस हास को
थम गया सागर की लहरों का तांडव
थमी थी जब वह हँसी
और भीतर मौन पसरा था
वहाँ कोई भी नहीं था
जैसे चला गया था कोई परम विश्राम को
अनंत समय बीता कि क्षणांश
कौन कहे
जब एक स्पंदन हुआ फिर
द्वार दरवाजे खुलने लगे
झरने लगे जिसमें से
सुगीत और आँच नेह की
जिसमें डूबने लगा था
सारा अस्तित्त्व
आज उसने स्वयं को उद्घाटित होने दिया था
अब महोत्सव की बारी थी..


गुरुवार, मई 17

बस जीना भर है



बस जीना भर है

मेह बरस ही रहा है
बस भीगना भर है
सूरज उगा ही है
नजर से देखना भर है
शमा जली है
बस बैठना भर है
धारा बह रही है
अंजुरी भर ओक से पीना भर है

उतार फेंकें उदासी की चादर
कि कोई आया है
परों को तोलने का
आज मौका पाया है...