घाटियाँ जब खिलखिलायीं
बह रही थी नदी उर
की
बने पत्थर हम अड़े
थे,
सामने ही था
समुन्दर
नजर फेरे ही खड़े
थे !
गा रहा था जब
कन्हैया
बांसुरी की धुन
सुनी ना,
घाटियाँ जब
खिलखिलायीं
राह भी उनकी चुनी
ना !
भीगता था जब चमन
यह
बंद कमरों में
छिपे थे,
चाँद पूनो का
बुलाता
नयन स्वप्नों से
भरे थे !
सुख पवन शीतल बही
जब
चाहतों की तपिश
उर में,
स्नेह करुणा वह
लुटाता
मांगते थे
मन्दिरों में !
आज टूटा भरम सारा
झूमती हर इक दिशा
है,
एक से ही नूर
बरसे
प्रातः हो चाहे
निशा है !