मंगलवार, नवंबर 26

मन


मन 

सोया है मन युगों-युगों से
सुख स्वप्नों में खोया भी है

कुछ झूठे अंदेशों पर फिर
रह-रह नादां रोया भी है

सुख-दुःख की लहरों पर चढ़कर
दामन व्यर्थ भिगोया भी है

माया के कंटक से बिंधकर
अश्रुहार पिरोया भी है

प्रेम पीर से आहत होकर
अंतर राग समोया भी है

सूखे पत्तों से भरा हुआ
उर का आंगन धोया भी है

पुनः-पुनः उसी राह पर जाये
सुनी सीख यह गोया भी है

5 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (27-11-2019) को    "मीठा करेला"  (चर्चा अंक 3532)     पर भी होगी। 
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
     --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'  

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  2. माया के कंटक से बिंधकर
    अश्रुहार पिरोया भी है

    प्रेम पीर से आहत होकर
    अंतर राग समोया भी है.... बहुत खूबसूरत शब्दों से सजी रचना

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  3. प्रेम पीर से आहत होकर
    अंतर राग समोया भी है

    सूखे पत्तों से भरा हुआ
    उर का आंगन धोया भी है..बेहतरीन सृजन आदरणीया दीदी जी.
    सादर

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