मन
सुख-दुःख, राग-द्वेष के तट पर
नदिया जैसा बहता है मन,
इस तट आकर पुलकित होता
उस तट उदग्विन रहता है मन !
मिट कर चैन मिले न जाने
किरणों संग यदि उड़ जाये,
उसी एक से एक हुआ तब
नजर नहीं किसी को आये !
किन्तु उसे दूर जाना है
लक्ष्य कई मन में पाले हैं,
पाहन, जंगल, विजन, शहर भी
उसके रस्ते में आने हैं !
नहीं ज्ञात है आखिर में तो
हर नदिया को मिटना होगा,
सागर के खारे जल में ही
सूरज के संग तपना होगा !
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना शुक्रवार १७ जनवरी २०२० के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (17-01-2020) को " सूर्य भी शीत उगलता है"(चर्चा अंक - 3583) पर भी होगी
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का
महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता 'अनु '
बहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंवाह!!!
जवाब देंहटाएंलाजवाब सृजन...