है सारा विस्तार एक से
सूरज बनकर दमक रहा है
बना चन्द्रिका चमक रहा है,
झर झर झरती जल धार बना
बन सुवास मृदु गमक रहा है !
हरियाली बन बिखराता सुख
भाव रूप में मौन व गरिमा
कहाँ अलग धरती अम्बर से
है सारा विस्तार एक से !
जल का स्वाद, अन्नका पोषण
वह ही लपट आग की नीली,
उससे ही जग का आकर्षण
वही ज्वाला बनी है पीली !
वह ही भाव, विचार, ज्ञान है
वह ही लघु, सबसे प्रधान है,
उससे कोई कहाँ विलग है
जिससे है वह कहाँ अलग है !
जननी है वह सब जीवों की
उससे रूप सभी को मिलता,
वही पराशक्ति भी अजर वह
नाम जहाँ से पैदा होता !
खुद को खुद की जगे कामना
ऐसी माया वह ही रचती,
जग का पहिया रहे डोलता
ऐसा कुछ आयोजन करती !
थामे हुए नजर है कोई
आसपास ही सदा डोलती,
ग्रह, नक्षत्र सभी की शोभा
एक उसी का राज खोलती !
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (15-01-2020) को "मैं भारत हूँ" (चर्चा अंक - 3581) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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मकर संक्रान्ति की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
जवाब देंहटाएंथामे हुए नजर है कोई
आसपास ही सदा डोलती,
ग्रह, नक्षत्र सभी की शोभा
एक उसी का राज खोलती
लाज़बाब ,सादर नमन ,आप को मकरसंक्रांति की हार्दिक शुभकामनाएं
स्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सृजन
जवाब देंहटाएंग्रह, नक्षत्र सभी की शोभा
जवाब देंहटाएंएक उसी का राज खोलती
..... लाज़बाब