बुधवार, जून 16

लीला जगत की

लीला जगत की 

अंतर की हर दुविधा को 

जगत ने आधार दिए 

सही सिद्ध करने हर पीड़ा, हर बेचैनी को 

एक नहीं कारण हजार दिए 

फूल झरा असमय जब 

अश्रु नयनों ने बहाये

किसी का कुछ खो गया 

निज अभाव याद आये

बाहर का हर दुःख 

मन के द्वंद्वों को भुलाने का साधन है 

सुख की तलाश का झूठा विज्ञापन है 

 पनप रहीं हैं जब तक

भीतर अशांति की बेलें 

मिल जाते बाहर मचान उधार हैं 

महामारी नहीं तो बाढ़ या कभी सूखा 

फिर महंगाई ! यहाँ समस्याओं का लगा अंबार  है 

पर जब दूर हो जाता है 

अंतर का हर उहापोह 

बाहर लीला ही नजर आती है 

दुनिया किसी पर्दे पर चले रहे खेल जैसी 

कभी हँसाती कभी रुलाती है !





 

10 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 17-06-2021को चर्चा – 4,098 में दिया गया है।
    आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
    धन्यवाद सहित
    दिलबागसिंह विर्क

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  2. मन के अंतर्द्वंद को दर्शाती समसामयिक रचना।

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  3. अद्भुत ल‍िखाअनीता जी क‍ि---मन के द्वंद्वों को भुलाने का साधन है

    सुख की तलाश का झूठा विज्ञापन है

    पनप रहीं हैं जब तक

    भीतर अशांति की बेलें ---वाह । आध्‍यात्‍म को हमेशा एक अलग स्‍तर पर ले जाती हैं आप

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  4. अलकनंदा जी, ओंकार जी व अनीता जी आप सभी का स्वागत व आभार !

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  5. बहुत सुंदर गहन सत्य।
    ये अंतर के द्वंद ही हैं जो उलझाते भी हैं और सुलझाते भी हैं।
    बहुत सार्थक।

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  6. पर इस लीला से बाहर आ के देख कौन पाता है ...
    जीवन बीत जाता है इसी कशमकश में और ये यात्रा चलती रहती है ...

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