नीलगगन सी विस्तृत काया
एक शून्य है सबके भीतर
एक शून्य चहुँ ओर व्यापता,
जाग गया जो भी पहले में
दूजे में भी रहे जागता !
शून्य नहीं वह अंधकार मय
ज्योतिर्मयी प्रभा से मंडित,
पूर्ण सजग हो रहता योगी
निज आभा में होकर प्रमुदित !
उसी शून्य का नाम सुंदरम्
प्रेम-ज्ञान की जो मूरत है,
परम अनादि-अनंत तत्व शिव
अति मनहर धारे सूरत है !
रखता तीन गुणों को वश में
मन अल्प, चंद्रमा लघु धारे,
मेधा बहती गंगधार में
भस्म काया पर, सर्प धारे !
नीलगगन सी विस्तृत काया
व्यापक धरती-अंतरिक्ष में,
शिव की महिमा शिव ही जाने
शक्ति है अर्धांग में जिसको !
समाधि व साधना प्रतीक शिव।
जवाब देंहटाएंउम्दा रचना
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शिवरात्रि की शुभकामनाएं !
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जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 10 मार्च 2021 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
बहुत बहुत आभार !
हटाएंबहुत सुन्दर और विचारोत्तेजक रचना।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार !
हटाएंशून्य ही आदि है और शून्य ही अंत।
जवाब देंहटाएंसही कहा है
हटाएंबहुत सुंदर भावपूर्ण रचना..आध्यात्मिक एवम चिंतन से परिपूर्ण..
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंशून्य कितना विस्तृत । और हम शून्य में भटकते रहते ।
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना।
यही तो विडंबना है
हटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंआभार !
हटाएंबहुत बहुत सुन्दर सराहनीय
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंशून्य में कितना कुछ समाहित है देखनेवाली आँख ही उसे देख पाती है.
जवाब देंहटाएंसही कहा है आपने प्रतिभा जी !
हटाएंनीलगगन सी विस्तृत काया
जवाब देंहटाएंव्यापक धरती-अंतरिक्ष में,
शिव की महिमा शिव ही जाने
शक्ति है अर्धांग में जिसको !
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अति सुंदर सारगर्भित रचना अनीता जी।
आपकी लेखनी से निसृत अलौकिक आभा बेहद पवित्र है।
सादर।