बुधवार, अगस्त 30

वायनाड की एक छोटी सी यात्रा

वायनाड की एक छोटी सी यात्रा 


वायनाड का नाम पहले सुना ज़रूर था पर वर्षों पूर्व की गयी केरल प्रदेश की हमारी यात्रा के दौरान वहाँ जाना नहीं हो पाया था। बारह अगस्त की सुबह, छह बजे से कुछ पल पहले हम चार लोगों का समूह (हम दोनों व पुत्र-पुत्रवधू)  कार द्वारा  बैंगलुरु से वायनाड की छोटी सी यात्रा के लिए रवाना हुआ। हरियाली से युक्त मार्ग में हम दो जगह रुके, पहली बार वाहन में ईंधन भरवाने व साथ लाया नाश्ता खाने और दूसरी बार ड्रोन से पर्वतों और घाटियों की तस्वीरें उतारने। एक यादगार और रोमांचक सफ़र के रास्ते में जंगल को बेहद नज़दीक से देखने का अवसर  मिला। कुछ अत्यंत पुराने विशाल वृक्ष देखे, जिनकी जड़ें दूर-दूर तक फैल गई थीं। झींगुरों का गान सुना और पक्षियों का कलरव भी, यहाँ तक कि सड़क किनारे तक आ गये हिरण और बाइसन के दर्शन भी हो गये । लगभग छह घंटों में हम मज़े-मज़े से मंज़िल पर पहुँच गये।



सिद्धार्थ(पुत्र) ने हमारे प्रवास के लिए बाणासुर बाँध के निकट स्थित ताज होटल को चुना था। होटल के दो कर्मचारियों द्वारा हमें बहुत ही इत्मीनान से पूरे इलाक़े का भ्रमण कराया गया। जिस पहाड़ी पर यह होटल स्थित है उसके तीन ओर झील है, बीच में सुंदर तीन मंज़िला इमारत है।यहाँ कई सुंदर बगीचे हैं, पैदल चलने के लिए आकर्षक ऊँचे-नीचे रास्ते हैं। खेलकूद व रोमांच से भरी अनेक गतिवधियों के साजो-सामान हैं। एक दीवार पर वायनाड के इतिहास को आकर्षक चित्रों में दर्शाया गया है। शहर से दूर प्रकृति के सान्निधय में एक-दो दिन गुज़ारने  जो लोग यहाँ आये हैं, हर क्षण प्रकृति की सुंदरता उन्हें आश्चर्य से भर रही है।चारों और दिखायी पड़ने वाले पर्वतों के शिखरों पर श्वेत धवल बादल और कोहरा जैसे कोई तिलिस्म जगाते हुए से लगते हैं।जब तक हमारा कमरा तैयार होता, स्वागत कक्ष में पड़ी कुछ किताबों पर ध्यान गया। जिनमें वायनाड और बाणासुर बाँध के बारे में कुछ रोचक जानकारी मिली।
वायनाड केरल का एकमात्र पठार है, जिसका नाम 'वायल नाडु'  अर्थात ‘धान के खेतों का गांव’ से पड़ा है।आरंभ में यह कन्नूर जिले का हिस्सा था; बाद में दक्षिण वायनाड को कोझिकोड जिले में जोड़ा गया। 1 नवंबर 1980 को उत्तर-दक्षिण दोनों भागों को जोड़कर वर्तमान जिला अस्तित्त्व में आया।




संपूर्ण केरल प्रदेश ही हरा-भरा और प्राकृतिक सुंदरता से भरपूर है।
वायनाड को भी प्रकृति ने अनुपम सौंदर्य प्रदान किया है। यहाँ  देश-विदेश से सैकड़ों पर्यटक लगभग वर्ष भर आते हैं। कल-कल करती नदियाँ, ऊँचे-ऊँचे वृक्षों से आच्छादित गहरे हरे रंग के पर्वत, श्वेत दूधिया जल से झर-झर झड़ते हुए निर्झर, गहरी घाटियाँ और अनेक झीलें प्रकृति की दी हुई  ऐसी सौग़ाते हैं, जो यात्रियों को सहज आनंद से भर देती हैं ; साथ ही चाय-कॉफ़ी के बागान, सुपारी, नारियल, केले  और मसालों की खेती इसकी खूबसूरती में चार चाँद लगा देते हैं। हाथियों के अलावा इस जंगल में  हिरण, बाइसन, जंगली भालू, चीता, बाघ आदि जानवर भी हैं ।विज्ञानियों के अनुसार समुद्र  तल से 2100 मीटर की ऊँचाई पर अवस्थित यह स्थान  3000 साल से भी पुराने घने वनों से ढंका है।ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण अनेक गुफाएँ यहाँ हैं, जिनमें से एडक्कल गुफाओं में मिलने वाले चित्र बहुत महत्वपूर्ण हैं।इतिहासकारों का मानना ​​है कि ईसा से शताब्दियों पहले यहाँ संगठित मानव जीवन विद्यमान था। इस क्षेत्र में कई मूल जनजातियाँ रहती आयी हैं। 



केरल प्रदेश की पांच प्रमुख नदियों काबिनी, कुंथी, मननथावाडी, पनामाराम और थिरुनेली का जल बाणासुर सागर जलाशय में गिरता है। इसका नाम केरल के प्रसिद्ध शासक राजा महाबली के पुत्र 'बाणासुर' के नाम पर पड़ा है। यह बांध भारत का सबसे बड़ा और एशिया का दूसरा सबसे बड़ा मिट्टी का बांध माना जाता है; जो बिना  सीमेंट के उपयोग के पत्थरों और चट्टानों के विशाल ढेर से बनाया गया है। जब बांध बना था, जलाशय ने आसपास के क्षेत्रों को जलमग्न कर दिया था। इसलिए यहाँ छोटे-छोटे द्वीपों का एक समूह बन गया है।बीच-बीच में हरियाली से युक्त स्वच्छ पानी का विशाल विस्तार नौका विहार के लिए एक आदर्श स्थान बन गया है।


दोपहर के भोजन में केरल के स्वादिष्ट पारंपरिक खाद्य पदार्थों को परोसा गया था। अप्पम और केरल परोठा के साथ विशेष मसालों में बनी सब्ज़ियाँ और मिष्ठान में पायसम ! कुछ देर विश्राम करने के बाद हम पुन: शीतल हवा का आनंद लेने के लिए तीसरी मंज़िल पर स्थित विशाल बालकनी में पहुँच गये । जहां से दूर तक फैली झील का मनोरम दृश्य आनंद का एक अप्रतिम स्रोत है। शाम की चाय से पूर्व हमने क्रिकेट और बाद में बिलियर्ड व  कैरम आदि  खेलने का आनंद लिया।पहली बार छोटी सी जिप लाइन पर साइकिल चलाने का रोमांचकारी अनुभव भी हमारे हिस्से में आया। देर शाम को कमरे में लौटे तो चादर पर फूलों से हैप्पी बर्थडे लिखे हुए मिला, साथ ही केक, फल आदि सजा कर रखे हुए थे । हमने  मिलकर पतिदेव का जन्मदिन मनाया, जिसके लिए इस लघु यात्रा का आयोजन किया गया था।  




अगले दिन सुबह एक दक्ष योगशिक्षक ने योग साधना के लिए बनाये गये विशेष स्थान पर एक घंटा तक आसन व प्राणायाम  का अभ्यास करवाया। सुबह की शांत बेला में पंछियों की सुमधुर ध्वनि के मध्य झील के किनारे इस सुंदर स्थान पर योगाभ्यास तन-मन दोनों को तरोताज़ा करने के लिए पर्याप्त था।प्रातः राश के बाद हम नौकायन के लिए निर्धारित स्थान पर गये। वहाँ लोगों की भीड़ लगी थी। कई तरह की नौकाएँ भी वहाँ थीं। गोल नौकाएँ, मोटरबोट और लकड़ी की छोटी नौकाएँ, पैडल से चलने वाली नौकाएँ, सर्प नौकाएँ भी वहाँ हैं। लगभग एक घंटा झील में गुज़ारने के बाद हम वापस होटल आ गये और सामान समेटने के बाद वापसी की यात्रा आरंभ की। रास्ते में झील के किनारे एक निर्जन स्थान पर रुक कर शाम की चाय का आनंद लिया जो हम साथ ही लेकर आये थे। सिद्धार्थ ने  ड्रोन से पूरे पर्वत और झील प्रदेश का वीडियो बनाया।इसके बाद वायनाड में स्थित एक चाय संग्रहालय देखने गये,हरे-भरे चाय बाग़ानों के निकट स्थित यह म्यूज़ियम चाय का इतिहास बहुत रोचक चित्रों के माध्यम से सुनाता है।  बैंगलुरु पहुँचने से एक घंटा पूर्व सड़क किनारे के खेतों में लगे फूलों ने हमें पुन: कैमरा निकालने पर विवश कर दिया। कर्नाटक के सदाबहार मौसम के कारण यहाँ साल भर ही फूल उगाये जाते हैं। कई किलोमीटर तक फूलों की खेती देखने के यह हमारा प्रथम अवसर था। अब शाम का धुँधलका बढ़ने लगा था। जल्दी ही अविस्मरणीय स्मृतियों को समेटे हम घर लौट आये। 

 

6 टिप्‍पणियां: