जीना है जीवन भूल गए
जब संसार सँवारा हमने
मन पर धूल गिरी थी आकर,
जग पानी पी-पी कर धोया
मन का प्रक्षालन भूल गए !
नाजुक है जो, जरा ठेस से
आहत होता, किरच चुभे गर,
दिखता आर-पार भी इसके
यह बना कांच से भूल गए !
तुलना करना सदा व्यर्थ है
दो पत्ते भी नहीं एक से,
व्यर्थ स्वयं को तौला करते
जीना है जीवन भूल गए !
बना हुआ अस्तित्व, मिला सब
दाता ने है दिया भरपूर,
खो नहीं जाए लुट न जाए
चैन की बांसुरी भूल गए !
इक दिन सब अच्छा ही होगा
यही सोचते गई उमरिया,
मधुर विनोद, साथ स्वजनों का
है सदा निकट यह भूल गए !
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 28 मार्च 2024 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
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बहुत बहुत आभार रवींद्र जी !
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
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