सुख खिलता सदा उजालों में
उलझ-पुलझ अंतर रह जाता
अपने ही बनाये जालों में,
जो भी चाहा वह मिला बहुत
खो डाला किन्हीं ख़्यालों में !
तम की चादर से ढाँप लिया
सुख खिलता सदा उजालों में,
परिवर्तन भी आया केवल
चाय के कप के उबालों में !
जिनको खाकर तन कुम्हलाया
हर राज था उन्हीं निवालों में,
जो विस्मय से भर सकता मन
उलझाया उसे सवालों में !
उड़ने को खुला गगन पाया
ख़ुद घेरा इसे दिवालों में,
जीवन की संध्या में पूछा
क्या पाया भला बवालों में ?
बाहर-भीतर बैचेनी, कुछ न मिला बवालों में, सुख की तलाश जारी है आजीवन सवालों में।
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बहुत सुंदर अभिव्यक्ति।
सस्नेह
सादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार १४ जून २०२४ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
बहुत बहुत आभार श्वेता जी !
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंवाह! अनीता जी ,बेहतरीन!
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार शुभा जी !
हटाएंजीवन की संध्या में पूछा
जवाब देंहटाएंक्या पाया भला बवालों में ?
उत्तम अभिव्यक्ति मैम🙏🏻👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻🙏🏻
स्वागत व आभार !
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