चुपके से जब दिल की साँकल
दिल की गहराई में शायद
गोमुख एक छिपा रखा है,
गंगा जिस दिन बह निकलेगी
उस दिन सारे राज खुलेंगे !
सारे पत्थर ‘मैं’ और ‘तू’ के
चूर चूर हो बह जाएँगे,
छलक-छलक कर जल के धारे
रस में हमें भिगो जाएँगे !
कितनी परिचित सी है गाथा
वह अनमोल घड़ी आयी थी,
चुपके से जब दिल की साँकल
तुमने आकर खड़कायी थी !
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" रविवार 25 अगस्त 2024 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार दिग्विजय जी !
हटाएंबहुत बहुत मधुर बहुत बहुत सराहनीय
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएं''...
जवाब देंहटाएंचुपके से जब दिल की साँकल
तुमने आकर खड़कायी थी !
...''
प्रेम की अनुभूति हुई। प्रेम का लौटना सबसे सुखद पल होता है। बहुत ही सुन्दर पंक्तियाँ।
आज मुझे एक नया शब्द 'साँकल' भी मिला। धन्यवाद।
वाक़ई प्रेम बार-बार लौटता है पर कभी चुकता नहीं,स्वागत व आभार !
हटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंसही कहा है आपने, स्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंवाह ! कितनी सुंदर अभिव्यक्ति है, एकदम दिल को छू गई. कई बार पढ़ी.
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार मीना जी !
हटाएंबहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएंदिल को छू गई।
स्वागत व आभार रूपा जी !
हटाएंwah!! Kitni sundar, meethi rachna hai!
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
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