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सोमवार, सितंबर 25

यह तू तो नहीं

यह तू तो नहीं


कहीं कुछ ऐसा नहीं 

जहाँ नज़र ठहर जाये 

दिल के मोतियों को लुटाता चल 

कि यह दामन भर जाये

हर सुकून भीतर ही मिला 

जब भी मिला 

बाहर फूलों के धोखे में 

काँटों से पाँव छिलवाये 

ख़ुद पे यक़ीन कर 

ख़ुदा में छिपा है ख़ुद 

वह यक़ीन ही छू सकता उसे 

 जर्रे-जर्रे में जो मुस्कुराए 

तू खुश है ही बेवजह 

जैसे दुनिया की वजह नहीं 

तलाश ख़ुशियों की 

बेमज़ा ज़िंदगी को बनाती जाये 

तेरे दामन में हज़ार 

ख्वाहिशें लिपटीं 

उतार फेंक इसे क्योंकि 

यह तू तो नहीं, बताती जाये ! 


सोमवार, जनवरी 27

माँ



माँ 


माँ दुआओं का ही दूजा नाम है 
उसके दामन में सहज विश्राम है 

सर्द थीं कितनी हवाएं रोक न पायीं कभी 
नित लगीं घर काम में मुँह अंधेरे उठ गयीं 

गर्म चूल्हे की तपन जलता हुआ तंदूर था 
मुस्कुराते ही दिखीं यादों में हर मंजर खुला 

चन्द लम्हे फुरसतों के जब कभी उन्हें मिले
ली सलाई हाथ में ऊन के गोले खुले 

रेडियो पर सुन कहानी पत्रिका अखबार पढ़तीं 
इतिहास दसवीं में पढ़ा याद था उनको जुबानी 

छोड़ कर चल दीं जहां दिल से ना जा पायीं मगर
साया बनकर साथ हैं हर घड़ी आशीष बन कर  

आज माँ की उन्नीसवीं पुण्यतिथि है 

बुधवार, दिसंबर 14

कितना सा था चाहत का घट

कितना सा था चाहत का घट 


श्वासें  भर जाएँ भावों से 
हो कृतज्ञ झुक जाये अंतर 
जीवन का उपहार मिला है 
बहता जैसे महा समंदर !

धूप नेह की खिली सघन जब 
प्रीत ऊष्मा मेघ बन गयी,
हुई  शुष्क जो नदिया उर की  
 बरस-बरस हो मगन  बह गयी !

कितना सा था चाहत का घट 
भर-भर कर ढुलका जाता है,
 दिशा-दिशा में वही समोया 
कितने दामन भर जाता है !

एक अतल सोता हो जैसे 
अंतहीन या कोई गह्वर,
जाने कहाँ से दे संदेशे 
सुनते ही आ जाते हैं स्वर !

खोलें तो हर द्वार है उसका 
उढ़काया तो वह ही बाहर,
हर आवाज उसी तक जाती 
लिए अनसुने उसके ही स्वर !



शुक्रवार, दिसंबर 18

सृष्टि भरपूर है

सृष्टि भरपूर है


आज जो पंक है वही कल कमल बनेगा
अश्रु जो झरता है.. मन अमल बनेगा
अभी जो खलिश है भीतर वही कल स्वर्ग रचेगी
आज के जागरण से.. कल गहन समाधि घटेगी
सृष्टि भरपूर है प्रतिपल लुटाती है
जिसकी आज चाह उपजी कल उसे भर जाती है
बेमानी है अभाव की बात
यहाँ बरसता है पल-पल अस्तित्त्व
बस खाली कर दामन पुकारना है एक बार
रख देना मन को बना सु-मन उसके द्वार
माना कि शंका के दस्यु हैं, दानव भी भय के
पर विजय का स्वाद.. नहीं चखेंगे वे
निकट ही है उषा ज्ञान सूर्य उदित होगा
नजर नहीं आयेंगे तब भय और शंका
मुस्कुराएगी सारी कायनात संग में
आँखों में अश्रु भरे हर्ष और उल्लास के !