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मंगलवार, अगस्त 5

उर उसी पी को पुकारे

उर उसी पी को पुकारे


झिलमिलाते से सितारे
झील के जल में निहारें,
रात की निस्तब्धता में
उर उसी पी को पुकारे !

थिर जल में कीट कोई
खलबली मचा गया है,
झूमती सी डाल ऊपर
कोई खग हिला गया है !

दूर कोई दीप जलता
राह देखे जो पथिक की,
कूक जाती पक्षिणी फिर
नींद खुलती बस क्षणिक सी !

स्वप्न ले जगत सारा
रात्रि भ्रम जाल डाले,
कालिमा के आवरण में
कृत्य कितने ही निभा ले !

बुधवार, अक्टूबर 5

सूरज ऐसा पथिक अनूठा


सूरज ऐसा पथिक अनूठा

रोज अँधेरे से लड़ता है
रोज गगन में वह बढ़ता है,
सूरज ऐसा पथिक अनूठा
नित नूतन गाथा गढ़ता है !

नित्य नए संकट जो आते
घनघोर घटाटोप बन छाते,  
चीर कालिमा को अम्बर में
घोड़े सूरज के हैं जाते !

न कबीर हम न ही गाँधी
हमें कंपा जाती है आंधी,
नहीं जला सकते घर अपना
नहीं भुला सकते निज सपना !

जीवन के सब रंग हैं प्यारे
भ्रम तोडना नहीं हमारे,
रब से हम सुख ही चाहते
बना रहे सब यही मांगते !

न द्वेष रहे न रोष जगे
भीतर इक ऐसा होश जगे,
सूरज सा जलना सीख लिया
जिसने, वह हर पल ही उमगे !