जाग कर देखें जरा
कैद पाखी क्यों रहे
जब आसमां उड़ने को है,
सर्द आहें क्यों भरे
नव गीत जब रचने को है !
सामने बहती नदी
भला ताल बन कर क्यों पलें,
छांव शीतल जब मिली
घनी धूप बन कर क्यों जलें !
क्षुद्र की क्यों मांग जब
महा उच्च सम्मुख हो खड़ा,
क्यों न बन दरिया बहे
भरा प्रेम भीतर है बड़ा !
तौलने को पर मिले
प्रतिद्वंद्विता उर क्यों भरें,
आस्था की राह पर
शुभ मंजिलें नई तय करें !
धुन सदा इक गूंजती
वहाँ शोर से क्यों जग भरें,
छू रहा हर पल हमें
पीड़ा विरहन की क्यों सहें !
जाग कर देखें जरा
हर ओर उसकी सुलभ छटा,
प्राण बन कर साथ जो
भिगो मन गया बन कर घटा !
रूप के पीछे छिपा
सदा प्राप्य अपना हो वही,
नाम में सबके बसा
वही नाम जिसका है नहीं !