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रविवार, सितंबर 18

जैसे कोई घर लौटा हो

जैसे कोई घर लौटा हो


जगत पराया सा लगता था 

जब थी तुझसे पहचान नहीं, 

तेरी आँखों को पहचाना 

 सबमें  झांक रहा था तू ही !


अब कहाँ कोई है दूसरा 

जैसे कोई घर लौटा हो, 

कतरे-कतरे से वाक़िफ़ है 

जिसने अपना मन देखा हो !


जीवन का प्रसाद पाएगा 

आज यहीं इस पल में जी ले, 

दिल की धड़कन में जो गूँजे 

गीत बनाकर उसको पी ले ! 


शावक के नयनों से झाँके 

फूलों के नीरव झुरमुट में, 

तारों की टिमटिम जिससे है 

भ्रम के उस अनुपम संपुट से !


एक वही तो सदा पुकारे 

प्रेम लुटाकर पोषित करता, 

रग-रग से वाक़िफ़ है सबकी 

अनजाना सा बन कर रहता !