जैसे कोई घर लौटा हो
जगत पराया सा लगता था
जब थी तुझसे पहचान नहीं,
तेरी आँखों को पहचाना
सबमें झांक रहा था तू ही !
अब कहाँ कोई है दूसरा
जैसे कोई घर लौटा हो,
कतरे-कतरे से वाक़िफ़ है
जिसने अपना मन देखा हो !
जीवन का प्रसाद पाएगा
आज यहीं इस पल में जी ले,
दिल की धड़कन में जो गूँजे
गीत बनाकर उसको पी ले !
शावक के नयनों से झाँके
फूलों के नीरव झुरमुट में,
तारों की टिमटिम जिससे है
भ्रम के उस अनुपम संपुट से !
एक वही तो सदा पुकारे
प्रेम लुटाकर पोषित करता,
रग-रग से वाक़िफ़ है सबकी
अनजाना सा बन कर रहता !