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मंगलवार, मार्च 14

हम ही तो बादल बन बरसे

हम ही तो बादल बन बरसे 


तुझमें मुझमें कुछ भेद नहीं 

मैं तुझ से ही तो आया है, 

अब मस्त हुआ मन यह डोले 

सिमटी यह सारी माया है !


यह नीलगगन, उत्तांग शिखर 

उन्मुक्त गर्जती सी लहरें, 

अपने कानन, उपवन, राहें 

टूटे सारे जो थे पहरे !


हम ही तो बादल बन बरसे 

हमने ही रेगिस्तान गढ़े,

सागर में मीन बने तैरे 

अंबर में उच्च उड़ान भरें !


जब  समझ न पाए पागल मन 

दीवानों सा लड़ता रहता, 

जो हर अभाव से था ऊपर

कुछ हासिल करने को मरता !


जब दुःख को सच्चा माना

आँखों से उसे बहाया था, 

फिर खुद को कुछ माना उसने 

तब व्यर्थ बड़ा इतराया था !


गर झांक ज़रा भीतर लेता 

अम्बार लगे हैं ख़ुशियों के, 

जब व्यर्थ खोजता फिरता है 

वंचित ही रहता है उनसे !



रविवार, अक्टूबर 7

नहीं, यह मंजिल नहीं है



नहीं, यह मंजिल नहीं है  

नहीं, यहाँ राजपथ नहीं हैं
पगडंडियाँ हैं, जो खो गयी हैं कंटीले झाड़ों में
स्वयं निर्मित मार्ग पर ही बढ़ सकेंगे
नहीं खोजना है चिन्ह कोई
छोड़ गया हो जो, कोई राहगीर
अनजाने मार्गों से प्रवेश करेंगे..

नहीं, कंटक दुखद नहीं हैं
यदि बच के निकल सकेंगे
घाटियों से गुजर कर ही पाएंगे शिखर..

नहीं, यह मंजिल नहीं है
द्वार है केवल, जिससे होकर गुजरना है
छोड़ देना होगा ताम-झाम बाहर ही
द्वार संकरा है यह
समय भी छूट जायेगा बाहर
क्षुद्र सब गिर जायेगा
धारा के साथ जब बहेंगे
पंख बिना ही तब उडेंगे..

नहीं, यहाँ पाना नहीं है कुछ
अनावरण करना है उसे जो है
व्यापार नहीं करंगे जो प्रेम में
वही उसकी गहराई में उतर सकेंगे..