हम ही तो बादल बन बरसे
तुझमें मुझमें कुछ भेद नहीं
मैं तुझ से ही तो आया है,
अब मस्त हुआ मन यह डोले
सिमटी यह सारी माया है !
यह नीलगगन, उत्तांग शिखर
उन्मुक्त गर्जती सी लहरें,
अपने कानन, उपवन, राहें
टूटे सारे जो थे पहरे !
हम ही तो बादल बन बरसे
हमने ही रेगिस्तान गढ़े,
सागर में मीन बने तैरे
अंबर में उच्च उड़ान भरें !
जब समझ न पाए पागल मन
दीवानों सा लड़ता रहता,
जो हर अभाव से था ऊपर
कुछ हासिल करने को मरता !
जब दुःख को सच्चा माना
आँखों से उसे बहाया था,
फिर खुद को कुछ माना उसने
तब व्यर्थ बड़ा इतराया था !
गर झांक ज़रा भीतर लेता
अम्बार लगे हैं ख़ुशियों के,
जब व्यर्थ खोजता फिरता है
वंचित ही रहता है उनसे !