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सोमवार, जनवरी 8

बूँद एक घर से निकली थी

बूँद एक घर से निकली थी 


अंधकार में ठोकर खाते 

आँखें बंद किए चलते हैं, 

जाने कौन  मोह में फँस कर 

अक्सर ख़ुद को ही छलते हैं !


छोटी-छोटी इच्छाओं के 

बोझे तले व्यर्थ दबते हैं, 

सिर पर गठ्ठर लादे, जाने

कब से बीहड़ पथ चलते हैं !


अनजाने ही रह जाते वह 

अपने दिल की गहराई से, 

जीवन की संध्या आ जाती 

कान भरे हैं शहनाई से !


सागर से मिल सकती थी जो 

मरुथल में दम तोड़ रही है, 

बूँद एक घर से निकली थी 

जाने क्या वह जोड़ रही है ! 


अपनी ही ऊँचाई से बच 

बौना होता जाता मानव, 

पहचाने जाते थे पहले 

अब सबके भीतर ही दानव ! 


दुख की ठोकर जब भी लगती 

जाग देखता है सोया मन, 

पीड़ा ही पथ पर रखती है 

सुख में तो भटका है जीवन !


पर्वत जैसा दुख भी आये 

सागर सुख का ठाँठे मारे, 

आँख मूँद कर चलते पथ में 

ज्योति निरंतर जलती द्वारे ! 


सोमवार, नवंबर 22

खिला-खिला मन उपवन होगा

खिला-खिला मन उपवन होगा 


एक अनेक हुए दिखते हैं 

ज्यों सपने की कोई नगरी, 

मन ही नद, पर्वत बन जाता 

एक चेतना घट-घट बिखरी !


कैसे स्वप्न रात्रि में देखें 

कुछ खुद कुछ अज्ञात तय करे, 

जीवन में भी यही घट रहा 

जगकर देखें कहाँ खो गए !


एक जागरण नित्य प्रातः में 

स्वप्नों से जो मुक्ति दिलाए, 

परम जागरण ऐसा भी है 

जीते जी यह जग खो जाए !


एक तत्व में टिकना हो जब 

जीवन तब क्रीडाँगन होगा, 

अपने हाथों दुःख कब बोए 

खिला-खिला मन उपवन होगा !


जिस क्षण थामी बागडोर निज 

सुख-दुःख की ज़ंजीरें टूटीं, 

इक ही अनुभव व्यापा मन में 

समता उपजी ममता छूटी !