सोमवार, जनवरी 8

बूँद एक घर से निकली थी

बूँद एक घर से निकली थी 


अंधकार में ठोकर खाते 

आँखें बंद किए चलते हैं, 

जाने कौन  मोह में फँस कर 

अक्सर ख़ुद को ही छलते हैं !


छोटी-छोटी इच्छाओं के 

बोझे तले व्यर्थ दबते हैं, 

सिर पर गठ्ठर लादे, जाने

कब से बीहड़ पथ चलते हैं !


अनजाने ही रह जाते वह 

अपने दिल की गहराई से, 

जीवन की संध्या आ जाती 

कान भरे हैं शहनाई से !


सागर से मिल सकती थी जो 

मरुथल में दम तोड़ रही है, 

बूँद एक घर से निकली थी 

जाने क्या वह जोड़ रही है ! 


अपनी ही ऊँचाई से बच 

बौना होता जाता मानव, 

पहचाने जाते थे पहले 

अब सबके भीतर ही दानव ! 


दुख की ठोकर जब भी लगती 

जाग देखता है सोया मन, 

पीड़ा ही पथ पर रखती है 

सुख में तो भटका है जीवन !


पर्वत जैसा दुख भी आये 

सागर सुख का ठाँठे मारे, 

आँख मूँद कर चलते पथ में 

ज्योति निरंतर जलती द्वारे ! 


8 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर संदेशात्मक रचना।
    आपकी रचनाओं में निहित आत्मप्रक्षालन का पवित्र सुविचार मन को शांति प्रदान करते हैं।
    सादर।
    -----
    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना मंगलवार ९ जनवरी २०२४ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं