कोई है
सुलग रहा है रह-रह कर दिल
जाने कैसी पीड़ा छाई,
पलकों के पीछे से कोई
झांक रहा न दिया दिखाई I
भीतर ही भीतर यह कैसी
शक्ति का विस्फोट हो रहा,
बाहर आने को है व्याकुल
पर न कोई मार्ग पा रहा I
व्यर्थ न जाएँ सांसें देखो
व्यर्थ न हों जीवन का प्याला,
भीतर जो है अमृत का घट
भीतर जो छा गया उजाला I
भरा हुआ कृपा का बादल
बरस रहा है हर पल हम पर,
अहम् का छाता लिया लगाये
भिगो न पाता बहता निर्झर I
पल भर खाली हो कर देखें
पाएँ भीतर परम प्रकाश,
बांटें फिर कण-कण में उसको
भीतर पालें जो आकाश !
अनिता निहालानी
९ जुलाई २०१०
सही दिशा की ओर प्रेरित सुन्दर रचना...
जवाब देंहटाएंकृपया कमेंट्स की सेटिंग से वर्ड वेरिफिकेशन हटा दें ..टिप्पणी करना आसान हो जायेगा
संगीताजी, कविता पर आपकी प्रतिक्रिया पढ़कर अच्छा लगा. वर्ड वेरीफिकेशन हटा रही हूँ, धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंपल भर खाली हो कर देखें
जवाब देंहटाएंपाएँ भीतर परम प्रकाश,
बांटें फिर कण-कण में उसको
भीतर पालें जो आकाश !
nihsandeh... gudh sandesh
पल भर खाली हो कर देखें
जवाब देंहटाएंपाएँ भीतर परम प्रकाश,
बांटें फिर कण-कण में उसको
भीतर पालें जो आकाश !
अनीता जी नमस्कार ,
आपके लेखन का एक-एक शब्द मूल्यवान है ..!!
इसीलिए पुरानी कविताओं को सामने लाने का प्रयास है ये ...!
ये कविता भी अद्भुत है .
मैंने इसे नयी-पुरानी हलचल पर लिया है|आप आयें और अपने विचार दें
मेरी पुरानी कविता भी पढ़ें मुझे ख़ुशी होगी.
http://nayi-purani-halchal.blogspot.com/
anupama tripathi.
बहुत अच्छी भावनाओं को समेटे है यह कविता.
जवाब देंहटाएंसादर