गुरुवार, अक्तूबर 7

खुलवाएं जो बंद द्वार है

खुलवाएं जो बंद द्वार है

भीतर भर भंडार अनोखा
बाहर ढूँढें फीका फीका,
भीतर बह रहे अमृत धारे 
बाहर का जल फीका फीका !

माना कि यह जगत सुंदर है
माया ही माया है सारी,
पल भर का ही खेल पसारा
डूबी जिसमें बुद्धि हमारी !

झूठे सिक्के हैं ये जग के
ज्यादा दिन कब चल पायेगें,
राज खुलेगा जब इस जग का
जाने के दिन आ जायेगें !

वक्त रहे अमीय  को पालें
तज दें तमस उजास उगा लें,
मृत्यू ग्रसने आये पहले
खुद ही उससे हाथ मिला लें !

जीवन छुपा ढूढें उस पार
खुलवाएं जो बंद है द्वार,
हममें भी कुछ श्रेष्ट छिपा है
खुद से रखा नहीं सरोकार !

अनिता निहालानी
७ अक्तूबर २०१०

5 टिप्‍पणियां:

  1. आध्यात्म और अन्तर्मन का मेल ही सब द्वार खोल सकता है.... सुन्दर भाव भरी रचना के लिये बधाई

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  2. अनिता जी, मन के तारों को झंकृत कर गयी आपकी कविता। बधाई स्वीकारें।

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  3. वाह पहली बार पढ़ा आपको बहुत अच्छा लगा.
    आप बहुत अच्छा लिखती हैं और गहरा भी.
    बधाई.

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  4. ..................................................क्या कहूँ अल्फाज़ नहीं हैं परे पास.......वाह.....वाह

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  5. आप सबका आभार व ब्लॉग पर स्वागत ! संजय जी, एक बार पहले भी आप ने कुछ कविताओं को पढ़ा था व अपनी राय से नवाजा था.

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