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शनिवार, मार्च 29

पल-पल बरसे वह चाहत है

पल-पल बरसे वह चाहत है


हर फूल यहाँ जो खिलता है 

हर गीत उसी की नेमत है, 

यदि रोके ना कोई रस्ता 

पल-पल बरसे वह चाहत है !


रंगों के पीछे छिपा हुआ 

शब्दों का स्रोत वही तो है, 

भावों की भाषा पढ़ सकता 

नीरवता मौन वही तो है !


महिमावान नहीं वह केवल 

माधुर्य से ओतप्रोत है, 

करुणावान नहीं दिल उसका 

अतिशय स्नेह से युक्त भी है !


छाया बन संग-संग डोले 

धरा वही आकाश भी बना, 

राज छुपाना जितना चाहे 

 रहा कहाँ कोई राज छिपा !


रविवार, मार्च 23

भीतर कोई राह देखता

भीतर कोई राह देखता 


ऊपर वाला खुला राज है

फिर भी राज न खुलने वाला, 

देखा ! कैसा चमत्कार है 

या फिर कोई गड़बड़ झाला !


कण-कण में वह व्याप रहा है 

छिपा हुआ सा फिर भी लगता, 

श्वास-श्वास में वास उसी का 

दर्शन हित मीलों मनु चलता !


ढूँढ रहा जो गर थम जाये

जाये ठहर चाहने वाला,

भीतर कोई राह देखता 

 जग जाता गर सोने वाला !


देख लिया ? नहीं, देख रहा है !

इस पल के बाहर न मिलता, 

पल-पल सृष्टि नवल हो रही 

नित्य ही सब कुछ रचा जा रहा !


राज अनोखा जाना जिसने

वही ठगा सा खड़ा रह गया, 

ख़ुद को देखे या अनंत को 

भेद न कोई बड़ा रह गया !


रविवार, मार्च 2

अब बहुत हुआ लुकना-छिपना


अब बहुत हुआ लुकना-छिपना

कब अपना घूंघट खोलेगा 
कब हमसे भी तू बोलेगा, 
राधा का तू मीरा का भी 
कब अपने सँग भी डोलेगा! 

अपना राज छिपा क्यों रखता 
क्यों रस तेरा मन ना चखता, 
जब तू ही तू है सभी जगह 
इन नयनों को क्यों ना दिखता! 

अब और नहीं धीरज बँधता
मुँह मोड़ भला क्यों तू हँसता, 
अब बहुत हुआ लुकना-छिपना  
तुझ बिन ना अब यह दिल रमता! 

जो तू है, सो मैं हूँ, सच है 
पर मुझको अपनी खबर कहाँ, 
अब तू ही तू दिखता हर सूं 
जाती है अपनी नजर जहाँ ! 

यह कैसा खेल चला आता 
तू झलक दिखा छुप जाता है, 
पलकों में बंद करूं कैसे 
रह-रह कर बस छल जाता है ! 

शनिवार, अक्टूबर 7

हल्का हो मन उड़े

हल्का हो मन उड़े


यादों की गठरी ले 

तन-मन ये चलते हैं, 

कल का ही जोड़ आज 

 संग लिए फिरते हैं !


कोई तो उतारे बोझ

हल्का हो मन उड़े, 

एक बार बिना भार 

ख़ुद से फिर आ जुड़े !


असलियत जान वह 

राज यही खोलेगा, 

प्रियतम है साथ सदा 

बात हर तोलेगा !


बुधवार, मई 11

सच में

सच में 

वह जो कभी नहीं बदलता 

न घटता तिल मात्र 

 न बित्ता भर भी बढ़ता 

वही तो हम हैं असल में 

खींचतान कर जिसे बड़ा किए जा रहे हैं 

वह नहीं 

कभी इसकी कभी उसकी 

टांग खींचते 

या अपना क़द दूसरों की नज़रों में ढूँढते 

बड़ा बनने  की कोई वजह नहीं छोड़ते 

छोटी-छोटी बातों में बड़प्पन झलकाते हैं 

पर हम बड़े हैं ही 

यह राज समझ नहीं पाते हैं 

जो आकाश की तरह रिक्त और अनंत है 

जो महासागरों की तरह विस्तीर्ण और गहरा है 

ऐसा अथाह स्वरूप हमारा है 

कृष्ण ने अर्जुन को इसी ज्ञान से संवारा है ! 

बुधवार, मार्च 23

तेरी निष्ठुर करुणा भी

तेरी निष्ठुर करुणा भी 


कामना की अगन भीषण
जल रहा दिन-रात अंतर,
हृदय अकुलाया भटकता 
शोक से व्याकुल हुआ उर  !

तू दृढ़ अंकुश बन आया 
 ताप से मुझको बचाने, 
तेरी निष्ठुर करुणा भी 
बसी जीवन औ' मरण में !

दिए तन-मन प्राण,वसुधा   
 नील अम्बर बिना माँगे, 
तृप्त उर कुछ भी न चाहे 
मिटे लालसा शुभ जागे  !

कभी थक अलसाए नैन 
कभी अधजगा सा  चलता, 
एक खोज में लगा हुआ  
तेरे पथ  बढ़ता जाता !

लिए ओट तू छिप जाता 
राज यह मैंने जाना , 
पूर्व मिलन से योग्य बनूँ 
मक़सद तेरा पहचाना !


(गीतांजलि से प्रेरित पंक्तियाँ)

शनिवार, फ़रवरी 20

जो बरसती है अकारण

जो बरसती है अकारण 


छू रहा है मखमली सा 

परस कोई इक अनूठा, 

बह रहा ज्यों इक समुन्दर

 आए नजर बस छोर ना !


काँपते से गात के कण 

लगन सिहरन भर रही हो, 

कोई सरिता स्वर्ग से ज्यों 

हौले-हौले झर रही हो  !


एक मदहोशी है ऐसी 

होश में जो ले के आती, 

नाम उसका कौन जाने 

कौन जो करुणा बहाती !


बह रही वह पुण्य सलिला  

मेघ बनकर छा रही है, 

मूक स्वर में कोई मनहर 

धुन कहीं गुंजा रही है !


शब्द कैसे कह सकेंगे 

राज उस अनजान शै का, 

जो बरसती है अकारण 

हर पीर भर सुर प्रीत का !


सुरति जिसकी है सुकोमल 

पुलक कोई है अजानी 

चाँदनी ज्यों झर रही हो 

एक स्पंदन इक रवानी 


बिन कहे कुछ सब कहे जो 

बिन मिले ही कंप भर दे, 

सार है जो प्रीत का वह 

दिव्यता की ज्योति भर दे !

 

गुरुवार, नवंबर 26

आहट

आहट

अनजाने रस्तों से

कोई आहट आती है

बुलाती है सहलाती सी लगती

कौतूहल से भर जाती है

जाने किस लोक से

भर जाती आलोक से

मुदित बन जाती है

सुधियाँ जगाती

कौन जाने है किसकी

आँख पर रहे ठिठकी

शायद कुछ राज खुले

स्वयं न बताती

फिजाओं में घुल जाती है

सुनी सी पर अजानी भी

भेद क्यों न खोलती

जाने क्या कहती वह

 क्या गीत गुनगुनाती है 

सोमवार, अक्टूबर 12

जो खिल रहा अनंत में

 जो खिल रहा अनंत में 

एक ही तो बात है 

एक ही तो राज है, 

एक को ही साधना 

एक से दिल बाँधना !


एक ही आनंद है 

वही जीवन छंद है, 

बह रहा मकरंद है 

मदिर कोई गंध है !


खिले वही अनंत में 

दुःख-विरह के अंत में, 

राधा-श्याम कंत में

ऋतुराजा वसंत में ! 

 

 रहे यदि बंटे हुए 

जीवन से कटे हुए, 

 तीर से बिंधे हुए 

सुख विलग रुंधे हुए !


राज से अनभिज्ञ है 

मूढ़ कोई विज्ञ है, 

एक की हो साधना 

उसी  की  आराधना !


शनिवार, जून 29

मन बेचारा




मन बेचारा


तोड़ डाला महज खुद को
चाह जागी जिस घड़ी थी,
पूर्ण ही था भला आखिर
कौन सी ऐसी कमी थी !

बह गयी सारी सिखावन
चाह की उन आँधियों में,
खुदबखुद ही कदम जैसे
बढ़ चले उन वादियों में !

एक झूठी सी ख़ुशी पा
स्वयं को आजाद माना,
चल रहा चाह से बंधा
राज यह मन ने न जाना !

स्वयं ही उलझन रचाता
स्वयं रस्ता खोजता था,
दिल ही दिल फिर फतेह की
गलतफहमी पालता था !

उसी रस्ते पे न जाने
लौट कितनी बार आया, 
जा रहा है स्वर्ग खुद को
नित नया सपना दिखाया !  

गुरुवार, अक्टूबर 4

खुद न जाने जागता मन


खुद न जाने जागता मन


स्वप्न रातों को बुने मन
नींद में कलियाँ चुने मन,
क्या छिपाए गर्भ में निज
खुद न जाने जागता मन !

कौन सा वह लोक जिसमें
कल्पना के नगर रचता,
कभी गहरी सी गुहा में
एक समाधि में ठहरता !

छोड़ देता जब सुलगना
इस-उसकी श्लाघा लेना,
खोल कर खिड़की के पाट
आसमा को लख बिलखना !

 एक अनगढ़ गीत भीतर
सुगबुगाता सा पनपता,
एक न जाना सा रस्ता
सदा कदमों को बुलाता !

राज कोई खुल न पाया
खोलने की फिकर छोड़ी,
कौन गाये नीलवन में ?
सुनो ! सरगम, तान, तोड़ी !


बुधवार, जुलाई 4

राज खुलता जिंदगी का




राज खुलता जिंदगी का


एक उत्सव जिन्दगी का
चल रहा है युग-युगों से,
एक सपना बन्दगी का
पल रहा है युग युगों से !

घट रहा हर पल नया कुछ
किंतु कण भर भी न बदला,
खोजता मन जिस हँसी को
उसने न घर द्वार बदला !

झाँक लेते उर गुहा में
सौंप कर हर इक तमन्ना,
झलक मिलती एक बिसरी
राज खुलता जिंदगी का !

मिट गये वल्लि के पुतले
चंद श्वासों की कहानी,
किंतु जग अब भी वही है
है अमिट यह जिंदगानी !

सोमवार, सितंबर 25

एक पुहुप सा खिला है कौन


एक पुहुप सा खिला है कौन 


एक निहार बूँद सी पल भर
किसने देह धरी,
एक लहर सागर में लेकर
किसका नाम चढ़ी !

बिखरी बूँद लहर डूब गयी 
पल भर दर्श दिखा,  
जैसे घने बादलों में इक
चपला दीप जला !

एक पुहुप सा खिला है कौन 
जो चुपचाप झरे,  
एक कूक कोकिल की गूँजे
इक निश्वास भरे !

एक राज जो खुला न अब तक
कितने वेद पढ़े,  
किसी अनाम की खातिर कौन
पग-पग नमन करे !