तेरे सिवा कोई और कहाँ है
बन जाऊँ मैं तेरी बांसुरी
तेरे गीतों को जन्माऊँ,
तू ही झलक-झलक जाये फिर
मन दर्पण को यूँ चमकाऊँ !
प्रस्तर में ज्यों छिपी मूर्ति
शिल्पी की आँखें लख लेतीं,
इस महा अस्तित्त्व में कान्हा
निरख-निरख शुभ दर्शन पाऊँ !
कण-कण में जो गूंज रहा सुर
उर में ही झंकृत कर पाऊँ,
हवा, धूप, आकाश, अनल सा
निकट सदा पा तुझको ध्याऊँ !
‘मैं’ ही जो ‘मैं’ जो भीतर रहता
ढक पुष्पों से उसे चढाऊँ,
ज्यों जल भरता खाली घट में
अंतर्मन में तुझे समाऊँ !
तेरे सिवा कोई और कहाँ है
माया कह कर किसे बुलाऊँ,
तू ही भीतर तू ही बाहर
लख-लख यह लीला मुस्काऊँ !
एक तत्व से हुआ पसारा
एक उसी को सदा रिझाऊं,
‘तू’ ही ‘मैं’ बन खोज रहा है
अद्भुत भेद समझ न पाऊं !
‘तू’ ही ‘मैं’ बन खोज रहा है
जवाब देंहटाएंअद्भुत भेद समझ न पाऊं !
गहन और सार्थक ...बहुत ही सुंदर
सुंदर दृष्टि प्रभु दें तो कुछ बुरा नहीं है ...!!
कल 05/12/2011को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
कृष्णमयी करती सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंवाह वाह अति उत्तम भाव संयोजन्।
जवाब देंहटाएंलख-लख यह लीला मुस्काऊँ ...अद्भुत लिखा है |
जवाब देंहटाएंजब तेरे मेरे का भेद मिट जाता है तो सभी कुछ कृष्ण मय हो जाता है ... उत्तम प्रस्तुति ...
जवाब देंहटाएंgahen, sunder shilp me dhali rachna.
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति ||
जवाब देंहटाएंबधाई ||
http://terahsatrah.blogspot.com
सुन्दर शब्दावली, सुन्दर अभिव्यक्ति.
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंहरि ॐ!
जवाब देंहटाएंमनभावन प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंसादर...
wahh...
जवाब देंहटाएंati uttam bhavpurn rachana...
बहुत सुन्दर हमेशा की तरह :-)
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