जैसे कोई द्वार खुला हो
भीतर-बाहर, सभी दिशा में
बरस रहा वह झर-झर, झर-झर,
पुलक उठाता, होश जगाता
भरता अनुपम जोश निरंतर !
जैसे कोई द्वार खुला हो
आज अमी की वर्षा होती,
आमन्त्रण दे मुक्त गगन भी
अंतर सहज ही रहे भिगोती !
रंचमात्र भी भेद नहीं है
जल से जल ज्यों मिल जाता है,
फूट गयीं दीवारें घट की
दौड़ा सागर भर जाता है !
मेघपुंज बन कभी उड़े मन
कभी हवा सँग नृत्य कर रहा,
पीपल की ऊँची फुनगी पर
खग के सुर में सुर भर रहा !
कभी दिशाएं हुईं सुवासित
सौरभ सहज चहूँ ओर बिखरता,
धूप रेशमी उतरी नभ से
जल कण से तृण कोर निखरता !
तन का पोर पोर कम्पित है
गुंजन इस ब्रह्मांड की सुनता,
उर बौराया चकित हुआ सा
देख-देख सब सपने बुनता !
कितना सुंदर लिखा है .. !
जवाब देंहटाएंमेघपुंज बन कभी उड़े मन
कभी हवा सँग नृत्य कर रहा,
पीपल की ऊँची फुनगी पर
खग के सुर में सुर भर रहा !
इस स्वप्निल सी अनुभूति में हम खो ही गए ...अपार हर्ष देती रचना ...
खूबसूरत प्रस्तुति ||
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत बधाई ||
terahsatrah.blogspot.com
अच्छा लगा पढ़ना।
जवाब देंहटाएंमेघपुंज बन कभी उड़े मन
जवाब देंहटाएंकभी हवा सँग नृत्य कर रहा,
पीपल की ऊँची फुनगी पर
खग के सुर में सुर भर रहा !
पढते पढते ऐसा ही महसूस होने लगा .. सुन्दर रचना
वाह नाद ब्रह्म बज उठा।
जवाब देंहटाएंभीतर-बाहर, सभी दिशा में
जवाब देंहटाएंबरस रहा वह झर-झर, झर-झर,
पुलक उठाता, होश जगाता
भरता अनुपम जोश निरंतर !
superb...!!
अनुपमा जी, मनोज जी, संगीता जी, रविकर जी और वन्दना जी, आप सभी का हृदय से आभार!
जवाब देंहटाएंतन का पोर पोर कम्पित है
जवाब देंहटाएंगुंजन इस ब्रह्मांड की सुनता,
उर बौराया चकित हुआ सा
देख-देख सब सपने बुनता !...
शायद ऐसा होता है ..आज कल बहुत सुन रहा हूँ बहुत पढ़ भी रहा हूँ ...कभी शायद उतर भी आयेगा !