दो वर्ष पूर्व यह संस्मरण मैंने लिखा था, पर तब पीड़ा इतनी थी कि इसे किसी से
साझा करने का मन नहीं हुआ, आज दो वर्ष बाद मन कृतज्ञता से भरा है सो आप सब के साथ
इसे बाँट रही हूँ.
छोटी बुआ
गैया-मैया बाँय-बाँय
तेरा दूध-दही हम खाएं,
तेरा बछड़ा जोते खेत
जिसकी मेहनत सोना देत,
तेरे गोबर को हम मानें
जो बरसाए मोती दाने !
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३० जून २०११
यह कविता बचपन में
मुझे छोटी बुआ ने याद करायी थी, हम साथ-साथ गाया करते थे. बरसों बीतने पर भी जब भी
उनसे मिलना हुआ हम इस कविता का जिक्र एक बार जरूर करते थे. उन्हें यह कविता पूरी
याद थी और मुझे सदा एकाध पंक्ति भूल जाती थी. धर्मयुग में छपी थी यह कविता, पीछे
के पन्नों पर जहाँ बच्चों का कोना हुआ करता था, अब तो न धर्मयुग रह गया है न ही
छोटी बुआ का कुछ पता है. उन दिनों पापाजी अपने दफ्तर के पुस्तकालय से लाया करते थे
ढेर सारी पत्रिकाएँ और किताबें, कुछ दिन घर पर रहतीं फिर नई आ जातीं. हम सभी भाई
बहनों को किताबें पढ़ने का शौक तभी से लग गया था. बुआ ज्यादा नहीं पढ़ती थीं पर इस
कविता ने उन्हें बांध लिया था. उम्र में वह दीदी के बराबर ही थीं. माँ बताती थीं
की जब दीदी का जन्म होने वाला था तो दादी और वह दोनों एक ही अस्पताल में साथ-साथ
गयी थीं, एक ही कमरे में बुआ, भतीजी का जन्म हुआ कुछ दिनों के अंतर से. जाहिर है
बुआ हम भाई-बहनों के साथ ही बड़ी हुईं, पर दादी की उम्र ज्यादा थी और ऊपर से उनकी
आँखें भी बहुत कम देख पाती थीं, एक आँख बचपन से ही चेचक की शिकार हो गयी और दूसरी
काला मोतिया बिगड़ जाने के कारण. अब घर का सारा काम बुआ के सर पर आ पड़ा. वह जैसे
बचपन में ही बड़ी हो गयीं. मुसीबत अकेले नहीं आती, मंझले भाई की पत्नी को मिर्गी की
बीमारी थी, जिसे विवाह से पहले छिपाया गया था, उनके आने से काम कम होने की बजाय और
बढ़ गया. बुआ मेरे ही स्कूल में पढ़ती थीं
पहले मुझसे आगे पर बाद में मुझसे पीछे हो गयीं, एक बार स्कूल में उन्हें नाक पर
गहरी चोट लगी, काफ़ी दिनों तक बिस्तर पर रहीं, दिमाग पर असर हो गया था, पढ़ाई में वह
पिछड़ने लगीं. लेकिन साफ-सफाई का बहुत ध्यान रखती थीं, पैरों को एकदम रगड़ कर साफ
करतीं, स्कूल की ड्रेस रोज प्रेस करके पहनतीं, हम एक ही स्कूल में थे शायद आठवीं
तक. उसके बाद हम दूसरे शहर चले गए. बुआ की पढ़ाई आगे नहीं हो पायी. अब उनके ऊपर
अपने नन्हें भतीजे व भतीजी की जिम्मेदारी भी आ गयी थी, दीदी का विवाह हो गया उसके
कई वर्षों बाद तक वह अपने माँ-पिता का घर सम्भालने का काम कर रहीं थीं. रंग साँवला
था, शिक्षा भी कम थी और उनके विवाह की चिंता माता-पिता को सता रही थी, एक रिश्ता
मिला अच्छा परिवार था सरकारी नौकरी में लड़का था, अब जाकर उनकी जिंदगी में कुछ
खुशियाँ आयीं, विवाह के कुछ समय बाद जब मिलीं तो
बुआ बहुत खुश लग रही थीं. वह खाना बहुत अच्छा बनाती थीं, शादी के बाद एक बार
वह कुछ दिनों के लिये हमारे घर आयीं, माँ मामा के यहाँ गयीं थीं, दीदी ससुराल की
हो गयी थी, सो भोजन बनाने की जिम्मेदारी मुझ पर थी, उन्होंने मुझे आलू-टमाटर की
सब्जी बनानी सिखाई, आज तक मैं उसी तरीके से यह सब्जी बनाती हूँ. वह कहती थीं की
आलू को उबालने के बाद कभी भी चाकू से काट कर मत डालो, उसे हाथ से दबा दो और टमाटर
को पीस लो या कस लो. जीरे का छौंक और हल्की मिर्च व नमक, हल्दी डाल कर बनाओ. एक और
कला उनमें थी, दसूती व सिंधी टांके की कढ़ाई वह बहुत अच्छी करती थीं, मैंने उनसे
प्रेरित होकर दो डबल बेड की चादरों पर कढ़ाई की, एक आज भी मेरे पास है. विवाह के
कुछ समय बाद बुआ के दो बच्चे हुए, बड़ा बेटा और छोटी बेटी, दोनों बहुत होशियार और
सुंदर. परिवार सुख से रह रहा था कि फिर गाज गिरी. फूफाजी को स्ट्रोक हुआ और वे
पक्षाघात के शिकार हो गए, कई महीने इलाज चला कुछ ठीक भी हुए, दोबारा काम पर भी गए
पर ज्यादा नहीं जी सके. इतना बड़ा आघात उन्होंने कैसे सहा होगा, बुआ को पति की जगह
काम मिल गया, पढ़ाई कम थी सो काम भी मिला तो चतुर्थ श्रेणी का, जिस दफ्तर में पति
ऊँची पोस्ट पर रहे हों वहाँ फाइलें पहुँचाने का काम करते हुए उनके दिल को ठेस लगती
रही होगी, वह बीमार रहने लगीं. धीरे धीरे बच्चे भी बड़े हो गए और बेटा पढ़ाई करके
नौकरी करने लगा. बेटी कॉलेज में आ गयी. पहले तो फोन पर वह बात करतीं थीं बाद में
फोन पर बच्चों से ही खबर मिल जाती थी आज के युग में सभी अपने-अपने जीवन में व्यस्त
हैं, सो मिलना तो बरसों से नहीं हुआ न ही वह परिवार की किसी शादी में आयीं, सबसे
कटकर रह गयीं, यही दुःख रहा होगा जो उन्हें अंदर ही अंदर खाता गया और वह मानसिक
रोग की शिकार हो गयीं, एक-दो बार बिना किसी को बताए घर से चली गयीं, फिर लौट आयीं,
अब की बार गयीं हैं तो एक महीने से ऊपर हो गया है अभी तक उनका कोई पता नहीं है, हर
रात मैं प्रार्थना करती हूँ कि कल शायद उनकी कोई खबर मिलेगी... ईश्वर ही उनके साथ
है इस दुनिया में तो उन्हें सुख कम और दुःख ज्यादा झेलना पड़ा......
३० जुलाई २०१३
अब इस बात का पूरा
यकीन हो गया है कि ईश्वर सदा हमारी प्रार्थनाएं सुनता है. कल रात अभी हम सोने की
तैयारी कर रहे थे कि फोन की घंटी बजी, छोटे भाई का फोन था, बुआ की खबर मिल गयी है,
सुनते ही विश्वास नहीं हुआ, दो वर्ष हो गये हैं उन्हें घर से गये हुए, उनके बच्चों
ने ढूँढने में कोई कसर नहीं छोड़ी, पुलिस में रिपोर्ट तो तभी दर्ज करा दी थी,
अख़बार, टीवी सभी में उनकी गुमशुदगी का समाचार दे दिया था. आज अचानक कैसे क्या हुआ
? भाई ने बताया, वह मैसूर स्थित टाइम्स ग्रुप के करुणा ट्रस्ट के मानसिक अस्पताल
में हैं, लगभग पौने दो वर्ष पूर्व उन्हें बैंगलोर रेलवे स्टेशन पर वहाँ की पुलिस
ने देखा और उनकी हालत देखकर मैसूर भेज दिया. अब वे ठीक हो रही हैं, उन्होंने अपने
बच्चों का नाम व घर का पता बताया जिससे लखनऊ पुलिस को खबर की गयी. आज शाम को चार
बजे जब उनके दोनों बच्चे अपने-अपने काम पर थे. पुलिस का एक सिपाही आया, पड़ोसिन ने
ही उसके फोन से बुआ से बात की और उन्हें पहचान लिया. भाई ने कहा इस वक्त उनका
पुत्र अपने दफ्तर के लोगों की सहायता से हवाई जहाज द्वारा बैंगलोर रवाना हो चूका
है और सम्भवतः कल या परसों वे अपने घर लौट आएँगी. बताते समय भाई की आवाज ख़ुशी से
भरी हुई थी और सुनते समय मेरे मन में एक ही बात गूंज रही थी, ईश्वर ने कितने लोगों
को निमित्त बनाया और बिछुड़े हुओं को मिलाया. उसकी कृपा अपार है.
शरणागतवत्सल, सर्वव्यापी, मंगलकारी प्रभु के श्रीचरणों में विश्वास और दृढ़ हो जाता है...
जवाब देंहटाएंहम सब उनके कृपापात्र हैं ही!
बुआ जी के लौट आने पर बधाई!
अनुपमा जी, आपने सही कहा है, आभार !
हटाएंबहुत सुंदर मर्मस्पर्शी संस्मरण .....
जवाब देंहटाएंअनिता जी हमेशा की तरह एक सांस में ही पढ़ गई....
अदिति जी, स्वागत व शुक्रिया..
हटाएंसुन्दर आलेख..
जवाब देंहटाएंमाहेश्वरी जी, आभार !
हटाएंवो चाहता है तो अविश्वसनीय घटना भी घटा देता है . जिस पर सहज ही यकीन नहीं होता है.
जवाब देंहटाएंअमृता जी, वह सब कुछ कर सकता है..चमत्कार भी...
हटाएंवाह। बहुत-बहुत बधाई आप लोगों को। बुआ ने वाकई अपने जीवन में बहुत कष्ट झेले हैं। दो साल के लम्बे अन्तराल में क्या आपको बुआ की याद नहीं आयी कि वे कहां और कैसी होंगी। निश्चित रुप से आई होंगी पर असंवेदनशील माहौल और परिवेश में बुआ की चिंता किसको होती जो उनके बारे में आप किसी को बतातीं। ठीक किया आपने जो उनके मिलने के बाद ही उनकी कुशलक्षेम के बाबत सूचित किया। बहुत अच्छा लगा बुआ के बाबत आपका अनुभव पढ़कर। मेरी ओर से उन्हें प्रणाम अवश्य कहिएगा।
जवाब देंहटाएंविकेश जी, आपने सही कहा है, याद तो बहुत बार आई, बल्कि एक दिन भी भूले नहीं, पर कोई सुराग नहीं मिलता था..आपका प्रणाम अवश्य कहूंगी.
हटाएंजीवन कैसा मिले किसको ॥क्या कहा जाए ....!!
जवाब देंहटाएंबस अब शुक्र है ईश्वर का ....!!
हृदयस्पर्शी संस्मरण ...!!
अनुपमा जी, सचमुच किसको क्या देखना पड़ेगा, कोई नहीं कह सकता, ईश्वर की कृपा पर भरोसा रखना होगा.
जवाब देंहटाएंबहुत गहन संस्मरण है… आँखें द्रवित हो गईं ……….इश्वर सब भला कर ही देता है एक दिन |
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