अस्तित्त्व और हम
जब सौंप दिया है स्वयं को
अस्तित्त्व के हाथों में
तब भय कैसा ?
जब चल पड़े हैं
कदम उस पथ पर
उस तक जाता है जो
तो संशय कैसा ?
जब बो दिया है बीज प्रेम का
अंतर में उसने ही
तो उसके खिलने में देरी कैसी ?
जब भीतर उतर आये हैं
शांति के कैलाश
तो गंगा के अवतरण पर
भीगने से संकोच कैसा ?
अपना अधिकार लेने में
यह झिझक क्यों है
हम उसी के हैं, और वही
हम बनकर जगत में आया है
जब जान लिया है या सत्य
तब यह नाटक कैसा ?
उसी को खिलने दो
बढ़ने दो
कहने दो
अब अपनी बात चलाने का
यह आग्रह कैसा ?
डूब जाओ
उसके असीम प्रेम में
किसी तरह
वह यही तो चाहता है
फिर उससे भिन्न होने का
भ्रम कैसा ?
जब भीतर उतर आये हैं
जवाब देंहटाएंशांति के कैलाश
तो गंगा के अवतरण पर
भीगने से संकोच कैसा ?
आध्यात्मिक भाव से परिपूर्ण बहुत सुन्दर सृजन । सादर नमस्कार अनीता जी !
स्वागत व आभार मीना जी!
हटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द शुक्रवार 08 नवंबर 2024 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार दिग्विजय जी!
हटाएंसच! जब समर्पण का भाव स्वतः पनप जाय। तो भिन्न होने का क्या मतलब!
जवाब देंहटाएंबहुत गहन लिख रही हैं आप।
सादर प्रणाम दीदी।
स्वागत व आभार प्रिय जिज्ञासा जी!
हटाएंजब सौंप दिया है स्वयं को
जवाब देंहटाएंअस्तित्त्व के हाथों में
तब भय कैसा ?
जब चल पड़े हैं
कदम उस पथ पर
उस तक जाता है जो
तो संशय कैसा ?
बहुत सुन्दर पंक्तियाँ 🙏
स्वागत व आभार!
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंगहन भाव लिए हुए बहुत सुंदर रचना।
जवाब देंहटाएंजब जीवन रूपी नैया का पतवार प्रभु के हाथों में तो फिर भय कैसा..
स्वागत व आभार रूपा जी !
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