मंगलवार, नवंबर 5

अस्तित्त्व और हम

अस्तित्त्व और हम 


जब सौंप दिया है स्वयं को 

अस्तित्त्व के हाथों में 

तब भय कैसा ?

जब चल पड़े हैं 

कदम उस पथ पर

उस तक जाता है जो 

तो संशय कैसा  ?

जब बो दिया है बीज प्रेम का  

अंतर में उसने ही 

तो उसके खिलने में देरी कैसी  ?

जब भीतर उतर आये हैं 

शांति के कैलाश 

तो गंगा के अवतरण पर 

भीगने से संकोच कैसा  ?

अपना अधिकार लेने में

 यह झिझक क्यों है 

हम उसी के हैं, और वही 

हम बनकर जगत में आया है 

जब जान लिया है या सत्य 

तब यह नाटक कैसा  ?

उसी को खिलने दो 

बढ़ने दो 

कहने दो 

अब अपनी बात चलाने का 

यह आग्रह कैसा  ?

डूब जाओ 

उसके असीम प्रेम में 

किसी तरह 

वह यही तो चाहता है 

फिर उससे भिन्न होने का 

भ्रम कैसा ? 


14 टिप्‍पणियां:

  1. जब भीतर उतर आये हैं
    शांति के कैलाश
    तो गंगा के अवतरण पर
    भीगने से संकोच कैसा ?
    आध्यात्मिक भाव से परिपूर्ण बहुत सुन्दर सृजन । सादर नमस्कार अनीता जी !

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  2. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द शुक्रवार 08 नवंबर 2024 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !

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  3. सच! जब समर्पण का भाव स्वतः पनप जाय। तो भिन्न होने का क्या मतलब!
    बहुत गहन लिख रही हैं आप।
    सादर प्रणाम दीदी।

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  4. जब सौंप दिया है स्वयं को

    अस्तित्त्व के हाथों में

    तब भय कैसा ?

    जब चल पड़े हैं

    कदम उस पथ पर

    उस तक जाता है जो

    तो संशय कैसा ?

    बहुत सुन्दर पंक्तियाँ 🙏

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  5. गहन भाव लिए हुए बहुत सुंदर रचना।
    जब जीवन रूपी नैया का पतवार प्रभु के हाथों में तो फिर भय कैसा..

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