रविवार, नवंबर 10

गोपी पनघट-पनघट खोजे

गोपी पनघट-पनघट खोजे


सुंदरता की खान छिपी है 

प्रेम भरा कण-कण में जग के , 

छोटा सा इक कीट चमकता 

रोशन होता सागर तल में !


बलशाली का नर्तन अनुपम 

भीषण पर्वत, गहरी खाई, 

अंतरिक्ष अगाध गहरा है 

क़ुदरत जाने कहाँ समाई !


खोज रहे हैं कब से मानव 

महातमस छाया है नभ में, 

शायद पा सकते हैं उसको 

धरित्री के भीतर अग्नि में !


नटखट कान्हा छुप जाता ज्यों 

गोपी पनघट-पनघट खोजे, 

उसके भीतर छिपा हुआ है 

घूँघट उघाड़ वहीं न देखे !


रस्ता भटक गया जो राही 

भटक-भटक कर ही पहुँचेगा, 

गिरते-पड़ते, रोते-हँसते 

अपनी भूलों से सीखेगा !


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