मंगलवार, नवंबर 4

देखो ! शाम ढलती है

देखो ! शाम ढलती है



देखो ! शाम ढलती है
लौटते हैं नीड़ को खग
हुए सूने गाँव के मग
आस मिलन की पलती है !

जो खिले थे प्रातः बेला
खो गये झर पुष्प सहसा,
जो बहे थे सुर सुरीले
खो गये स्वर पंछियों के !

जल उठे हैं दीप घर-घर
बज उठे हैं आरती स्वर,
रात्रि का स्वागत करें अब
रात-रानी खिलती है !

गगन का भी ढंग बदला
विटप का भी रंग बदला,
रोशनी की थी जो माया
किस तरह छलती है !

कूकती है इक अकेली
कोकिला बिछुड़ी तरु से
राह भटका ज्यों मुसाफिर
भटकन ही खलती है !


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