मन को जरा पतंगा कर ले
तू ही मार्ग, मुसाफिर भी तू
तू ही पथ के कंटक बनता,
तू ही लक्ष्य यात्रा का है
फिर क्यों खुद का रोके रस्ता !
मस्ती की नदिया बन जा मिल
तू आनंद प्रेम का सागर,
कौन से सुख की आस लगाये
तकता दिल की खाली गागर !
सूर्य उगा है नीले नभ में
खिडकी खोल उजाला भर ले,
दीप जल रहा तेरे भीतर
मन को जरा पतंगा कर ले !
मन की धारा सूख गयी है
कितने मरुथल, बीहड़ वन भी,
राधा बन के उसे मोड़ ले
खिल-खिल जायेंगे उपवन भी !
एक पुकार मिलन की जागे
खुद से मिलकर जग को पाले,
सहज गूंजता कण कण में जो
उस पावन मुखड़े को गाले !
स्व-दर्शन ही तो सुदर्शन है गर कोई समझे तो सारी मृगमरिचीका खत्म हो चले ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना |
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंसूर्य उगा है नीले नभ में
जवाब देंहटाएंखिडकी खोल उजाला भर ले,
दीप जल रहा तेरे भीतर
मन को जरा पतंगा कर ले ...वाह..;क्या बात है..बहुत सुंदर
एक पुकार मिलन की जागे
जवाब देंहटाएंखुद से मिलकर जग को पाले,
सहज गूंजता कण कण में जो
उस पावन मुखड़े को गाले !
सुंदर प्रस्तुति।
सकारात्मकता बहुत ही जरूरी है जीवन में. सुन्दर रचना.
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत आभार
जवाब देंहटाएंनिहार जी, अंकुर जी, रश्मि जी, ओंकार जी, यशवंत जी, आशा जी, अनिल जी आप सभी का स्वागत व आभार !
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