इक अकुलाहट प्राणों में
इक दर्द की चाहत की है
जो मन को बेसुध कर दे,
कुछ कहने, कुछ न कहने
दोनों का अंतर भर दे !
इक पीड़ा मांगी उर ने
जो भीतर तक छा जाये,
फिर वह सब जो आतुर
है, आने को बाहर आये !
इक बेचैनी सी हर पल
मन में सुगबुग करती हो,
इस रीते अंतर्मन का
कुछ खालीपन भरती हो !
इक अकुलाहट प्राणों में
इक प्यास हृदय में जागे,
सीधे सपाट मरुथल में
चंचल हरिणी सी भागे !
दर्द में ही अपने होने का अहसास होता है और किसी के होने का भी...अति सुन्दर कहा है..
जवाब देंहटाएंअमृता जी, बहुत दिनों के बाद आपका आगमन हुआ है...स्वागत व आभार !
हटाएंक्षमा याचना...आपकी लिखी रचना शनिवार 13 दिसंबर 2014 को लिंक की जाएगी........... http://nayi-purani-halchal.blogspot.in आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार !
हटाएंछयावादी स्वर-लहरी की गूँज सुनाई दे रही है 1
जवाब देंहटाएंआभार !
हटाएंबहुत सुन्दर एवं भावपूर्ण रचना.
जवाब देंहटाएंनई पोस्ट : गया से पृथुदक तक
बहुत खूब
जवाब देंहटाएंजीवन-दर्शन का मार्ग भी तो यही है. सुन्दर रचना.
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर बिम्ब भाव रचना भाव संसार।
जवाब देंहटाएंउमदा प्रस्तुति....
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति.....
जवाब देंहटाएंराजीव जी, निहार जी, वीरू भाई, मईड़ा जी, शांति जी, ओंकार जी, आप सभी का स्वागत व आभार !
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