जीवन की गागर 
बड़ा हो कितना भी सूरज का
गोला
विशाल हो कितना भी ब्रहमांड
अरबों-खरबों हों सितारे 
गहरे हों सागर या ऊँचें हों
पर्वत 
जीवन उन सबसे बड़ा है 
जीवन जो पलता है एक नन्हे
पादप में 
चींटी की लघु काया में 
जीवन जो बन सकता है 
मेधा कृष्ण में, प्रज्ञा
गार्गी में 
या प्रतिभा शंकर में 
सोये हुए हम जान नहीं पाते 
सपनों में खोये पहचान नहीं
पाते 
जीवन फिसलता जाता है हाथों
से 
चेतना जो निकट ही थी 
दूर ही रहे जाती है 
एक बार फिर जीवन की गगरी 
बिन पिए खो जाती है !  

 
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ब्लॉग बुलेटिन - हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु हमले के 70 वर्ष में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार !
जवाब देंहटाएंइस सुंदर कविता के माध्यम से जीवन दर्शन की विवेचना अच्छी लगी.
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंजीवन जब हमारे पास होता है कहाँ पहचान पाते हैं उसको...बहुत सुन्दर और गहन अभिव्यक्ति...
जवाब देंहटाएंरचना जी, ओंकार जी, व कैलाश जी आप सभी का स्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंसच में सारी गगरी खुली की खुली रह जाती है और हम एक बूँद भी नहीं पी पाते हैं.
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