फूल बना हो जैसे बीज
एक
ऊर्जा है अनाम जो
खींच
रही है अपनी ओर,
पता
ठिकाना नहीं है जिसका
दीवाना
जिसका मन मोर !
प्रेम
उमगता भीतर आता
उसकी
कोई खबर न मिलती,
जिसकी
तरफ उमड़ती धारा
जरा
भी उसकी भनक न मिलती !
हृदय
पिघलकर बहता जाता
दिशा
नहीं नजर आती है,
‘मैं’
खोया जब बचे ‘वह’ कैसे
उसकी
छाया मिट जाती है !
कण-कण
में मधु बिखरा जिसका
कैसे
एक दिशा में समाए,
पल-पल
फिर अमृत बन जाता
मिटकर
ही तो उसको पाए !
तृप्त
हुआ फिर डोले उर यह
फूल बना हो जैसे बीज,
मंजिल
पर ज्यों राह आ मिली
छूटी
डगर-डगर की प्रीत !
तृप्त हुआ फिर डोले उर यह
जवाब देंहटाएंफूल बना हो जैसे बीज,
मंजिल पर ज्यों राह आ मिली
छूटी डगर-डगर की प्रीत !
...अद्भुत और सटीक अभिव्यक्ति...
बहुत खूब ।
जवाब देंहटाएंवह असीम चेतना जब अनायास संचालित करने लगती है , मन आंतरिक उल्लास से विभोर हो उठता है .
जवाब देंहटाएंबहुत बढिया .शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंसच है यह अनुभव अभूतपूर्व है.
जवाब देंहटाएंसुंदर भावपूर्ण रचना.
कैलाश जी, मधुलिका जी, रचना जी, माहेश्वरी जी तथा प्रतिभा जी आप सभी का स्वागत व आभार !
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