एक निपट आकाश सरीखा
नयन खुले हों या
मुँद जाएँ
जीवन अमि अंतर
भरता है,
मन सीमा में जिसे
बांधता
वह उन्मुक्त सदा
बहता है !
चाह उठे उठ कर खो
जाये
दर्पण बना अछूता
रहता,
एक निपट आकाश
सरीखा
टिका स्वयं में
कुछ ना कहता !
अकथ कहानी जिसने
बाँची
चकित ठगा सा चुप
हो जाता,
जाने कितने वेष
धरे हैं
युग युग स्वयं को
दोहराता !
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