जीवन अमृत बहा जा रहा
कितनी बार चुभे हैं
कंटक
कितनी बार स्वप्न
टूटे हैं,
फिर-फिर राग लगाता
यह दिल
कितने संग-साथ छूटे
हैं !
सुख की फसल लगाने
जाते
किन्तु उगे हैं दुःख
ही उसमें,
धन के भी अम्बार लगे
हों
भीतर का अभाव ही
झलके !
ऊपर चढ़ने की खातिर
जब
कर उपेक्षा छोड़ा
होगा,
लौट-लौट आयेंगे वे
पल
कितनों का दिल तोड़ा
होगा !
फूलों की जब चाहत की
थी
काँटों के जंगल बोये
थे,
जगें स्वर्ग में नयन
खुलें जब
चाहा, लेकिन खुद
सोये थे !
कैसे जीवन पुष्प
खिलेगा
कोई तो आकर सिखलाये,
जीवन अमृत बहा जा
रहा
कोई क्यों फिर
प्यासा जाये !
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