शुक्रवार, सितंबर 7

जीवन अमृत बहा जा रहा



जीवन अमृत बहा जा रहा


कितनी बार चुभे हैं कंटक
कितनी बार स्वप्न टूटे हैं,
फिर-फिर राग लगाता यह दिल
कितने संग-साथ छूटे हैं !

सुख की फसल लगाने जाते
किन्तु उगे हैं दुःख ही उसमें,
धन के भी अम्बार लगे हों
भीतर का अभाव ही झलके !

ऊपर चढ़ने की खातिर जब
कर उपेक्षा छोड़ा होगा,
लौट-लौट आयेंगे वे पल
कितनों का दिल तोड़ा होगा !

फूलों की जब चाहत की थी
काँटों के जंगल बोये थे,
जगें स्वर्ग में नयन खुलें जब
चाहा, लेकिन खुद सोये थे !

कैसे जीवन पुष्प खिलेगा
कोई तो आकर सिखलाये,
जीवन अमृत बहा जा रहा
कोई क्यों फिर प्यासा जाये !

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