इन्द्रधनुष सा ही जग सारा
एक दिवस, दिन की गुल्लक से
कुछ अद्भुत पल
चुरा लिए थे,
ऋतु सुहावनी थी
बसंत की
मदमाती सुरभित
हवा लिए !
पर्वत के ऊँचे
शिखरों पर
हिम के स्वर्णिम
फूल खिले थे,
देवदार के तरुओं
पर भी
आभामय कुछ छंद
लिखे थे !
स्फााटिक मणि सी
निर्मल शीतल
जल धारा इक बहती
जाती,
फूलों की घाटी थी
नीचे
तितली, भ्रमरों
को लुभाती !
उन अनमोल क्षणों
को दिल की
गहराई में छुपा
रखा था,
आज टटोला सिवा
ख्याल के
कहीं नहीं थी
उनकी छाया !
काल चक्र भरमाता
अविरत
चुकती जाती जीवन
धारा,
अभी यहीं है, अभी
नहीं है
इन्द्रधनुष सा ही
जग सारा !
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार ओंकार जी !
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जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार रश्मिप्रभा जी !
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