तलाश
जाने किसकी प्रतीक्षा में
सोते नहीं नयन
जाने किस घड़ी की आस में
जिए चले जाता है जीवन
शायद वह स्वयं ही प्यास
बनकर भीतर प्रकटा है
अपनी ही चाहत में कोई प्राण
अटका है
सब होकर भी जब कुछ भी नहीं
पास अपने
नहीं लुभाते अब परियों के
भी सपने
इस जगत का सारा मायाजाल देख
लिया
उस जगत का सारा इंद्रजाल भी
चूक गया
मन कहीं नहीं टिका.. अब कौन
सा पड़ाव ?
किस वृक्ष की घनी छाँव
कैसे मिलेगा मन का वह भाव
या फिर मन ही खो जाने को है
अब अंतिम सांसे गिनता है
अब यह पीड़ा भी कहनी होगी
जीने से पहले मरने की क्रीड़ा
तो सहनी होगी
दिल की गहराई में जो वीणा
बजती है
जहाँ से डोर जीवन की बढ़ती
है
उस अतल में जाना होगा
असीम निर्जन में स्वयं को
ठहराना होगा..
जब कोई तलाश बाकी नहीं रहती
तभी अक्सर खुल जाता है
द्वार
जिस अनजाने लोक का...
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन विश्वकर्मा जयंती और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार हर्षवर्धनजी !
हटाएंबहुत सुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार सुशील जी !
हटाएंजो लिखा है किस्मत में .... भाग में .... उसे तो भोगना ही है ...
जवाब देंहटाएंजीवन रहस्यों से पर्दा उठाती रचन ...
स्वागत व आभार दिगम्बर जी !
जवाब देंहटाएंह्र्दय की गहराई से निकली अनुभूति रूपी सशक्त रचना
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार संजय जी !
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