पारिजात बिखरें उपवन में
मानस हंस ध्यान के मोती
चुन-चुन कर पुलकित होता है ,
सुमिरन की डोरी में जिसको
अंतर मन निरख पिरोता है !
मुस्कानों में छलक उठेगी
सच्चे मोती की शुभ आभा,
जिसने पहचाना है सच को
इस दुनिया में वही सुभागा !
ध्यान बिना अंतर है मरुथल
मन पंछी भी फिरे उदासा,
रस की भीनी धार बह रही
वह है क्यों प्यासा का प्यासा !
कोई भी जो डुबकी मारे
छू ही लेता उस पनघट को,
अमृत छलके जहाँ अनवरत
खोलो मन के घूँघट पट को !
ध्यान बरसता कोमल रस सा
कण-कण काया का भी हुलसे,
खोजें इक सागर गहरा सा
व्यर्थ ताप में क्योंकर झुलसें !
तृप्त हुआ जब मन यह सुग्गा
बस उसका ही नाम रटेगा,
कृत-कृत्य हो जगत में डोले
जैसे मन्द समीर बहेगा !
या सुवास बनकर फैलेगा
जगती के इस सूनेपन में,
शब्द सहज झरेंगे जैसे
पारिजात बिखरें उपवन में !
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना मंगलवार ४ फरवरी २०२० के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
आध्यात्मिक रचना।
जवाब देंहटाएंध्यान द्वारा ही हम देख सकते हैं वो झरना जो व्यक्ति की भटकन को मिटा सकता है।
बहित ही लाजवाब रचना।
स्वागत व आभार !
हटाएंवाह अतिसुन्दर सृजन
जवाब देंहटाएंवाह
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सृजन
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंतृप्त हुआ जब मन सुग्गा
जवाब देंहटाएंबस इक ही नाम रटेगा,
कृत-कृत्य जगत में डोले
ज्यों मन्द समीर बहेगा !
वाह!!!
बेहद लाजवाब...