बुधवार, फ़रवरी 12

जाने क्यों


जाने क्यों

फूलों के अंबार जहाँ हम काँटों को चुन लेते, सुंदरता की खान जहाँ कुरूपता हम बुन लेते ! देव जहां आतुर नभ में आशीषों से घर भरने, स्वयं को ही समर्थ मान लगते बाधा से डरने ! भेद जरा जाना होता इस अनंत जग में आकर, किसके बल पर टिका हुआ किसे रिझाते गा गाकर ! सुख की आशा में डोले झोली में दुःख भर जाता, ‘मन’ होने का ढंग यही कुछ ना उसे और आता !

12 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 13.02.2020 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3610 में दिया जाएगा । आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी ।

    धन्यवाद

    दिलबागसिंह विर्क

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  2. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में गुरुवार 13 फरवरी 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  3. सुख की आशा में डोले
    झोली में दुःख भर जाता,
    ‘मन’ होने का ढंग यही
    कुछ ना उसे और आता !
    बहुत ही बढ़िया सृजन, अनिता दी।

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  4. सुख की आशा में डोले
    झोली में दुःख भर जाता,
    ‘मन’ होने का ढंग यही
    कुछ ना उसे और आता !

    बहुत ही सुंदर रचना ,सादर नमन

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