बुधवार, फ़रवरी 19

प्रेम



प्रेम 



प्रेम की नन्ही सी किरण 
हर लेती है सदियों के अंधकार को 
हल्की सी फुहार प्रीत की 
सरसा देती है मन माटी को 
प्रेम ‘उसका’ पता है 
प्रेम जगे जिस अंतर 
वहां कलियाँ  फूटती ही रहती हैं 
सद्भाव की 
जिसने पाया हो परस 
इसकी अनमोल छुवन का 
नहीं रह जाता वह अजनबी 
इस अनन्त सृष्टि  में 
बढ़ाता है हर फूल 
उसकी ओर मैत्री का हाथ 
हवा सहला देती है 
श्रम से भीगे मुख को 
बदलियाँ छाँव बनकर
 हर लेती हैं धूप की गर्माइश 
वह बांटता चलता है 
निश्च्छल मुस्कान 
और बन जाती है 
प्रेम ही उसकी पहचान !

3 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 20.02.2020 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3617 में दिया जाएगा| आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|

    धन्यवाद

    दिलबागसिंह विर्क

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  2. Fantastic Content! Thank you for the post. It's very easy to understand. more:iwebking

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  3. बहुत खूब..,प्रेम की सुंदर अभिव्यक्ति ,सादर नमन

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