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बुधवार, अगस्त 17

भीतर रंग सुवास छिपे थे


भीतर रंग सुवास छिपे थे 


डगमग कदम पड़े थे छोटे

शिशु ने जब चलना था सीखा, 

लघु, दुर्बल काया नदिया की 

उद्गम पर जब निकसे धारा !


बार-बार गिर कर उठता जो  

इक दिन दौड़ लगाता बालक, 

तरंगिणी बीहड़ पथ तय कर 

तीव्र गति से बढ़े ज्यों धावक !


 खिला पुष्प जो आज विहँसता 

प्रथम बंद इक कलिका ही था, 

भीतर रंग सुवास छिपे थे 

किंतु कहाँ यह उसे ज्ञात था ?


हर मानव इक वृक्ष छिपाए 

बीज रूप में जग में आता, 

सीखा जिसने तपना, मिटना 

इक दिन  वह जीवन खिल जाता !


बूँद-बूँद से घट भरता है 

बने अल्प प्रयास महाशक्ति ,  

इक दिन में  परिणाम न आते  

बस छूटे नहीं धैर्य व युक्ति !


सोमवार, जुलाई 19

लुटाता सुवास रंग

लुटाता सुवास रंग 

तृप्ति की शाल ओढ़े 
खिलता है हरसिंगार, 
पाया जो जीवन से 
बाँट देता निर्विकार !

कंपित ना हुआ गात 
घाम, मेह, शीत आए, 
तपा, भीगा, झूमता 
फूलों में मुस्कुराए !

जीवित है काफ़ी है 
नहीं कोई माँग और, 
लुटाता सुवास रंग 
रात खिलता झरे भोर !

एक उसी जगह खड़ा 
राही थम जाते सभी, 
देखते निगाहें भर 
सुवास मधुर जाएँ पी !

जीवन भी ऐसा ही 
है भीतर समान सदा,
देता रहे अनगिनत 
अहर्निश वरदान प्रदा !


सोमवार, मई 4

है भला वह कौन

है भला वह कौन 


वह नीलमणि सा प्रखर मनहर 
गुंजित करता किरणों के स्वर,
शब्दों से यह संसार रचा 
स्वयं मुस्काये, न खुलें अधर !

नित सिक्त करे, झरता झर-झर 
मूर्तिमान सौंदर्य सा वही, 
उल्लास निष्कपट अंतर में 
ज्यों निर्मल सुख की धार बही !

वह पल भर झलक दिखाता है 
फिर उसकी यादों के उपवन, 
सदियों तक मन को बहला दें 
युग-युग तक उनकी ही धड़कन ! 

वह एक नरम कोमल धागा 
जग मोती जिसमें गुँथा हुआ,
सृष्टि या प्रलय घटते निशदिन 
उसका आकर न अशेष हुआ 

उसको ही गाया मीरा ने 
रसखान, सूर नित आराधें,
भारत भूमि का पुहुप पावन
उसकी सुवास से घट भरते !

सोमवार, फ़रवरी 3

पारिजात हों उपवन में

पारिजात बिखरें उपवन में

मानस हंस ध्यान के मोती 

चुन-चुन कर पुलकित होता है , 

सुमिरन की डोरी में जिसको 

अंतर मन निरख पिरोता है  !


मुस्कानों में छलक उठेगी  

सच्चे मोती की शुभ आभा, 

जिसने पहचाना है सच को  

इस दुनिया में वही सुभागा !


ध्यान बिना अंतर है मरुथल 

मन पंछी भी फिरे उदासा,

रस की भीनी धार बह रही  

वह है क्यों प्यासा का प्यासा !


कोई भी जो डुबकी मारे 

छू ही लेता उस पनघट को, 

अमृत छलके जहाँ अनवरत 

खोलो मन के घूँघट पट को !


ध्यान बरसता कोमल रस सा 

कण-कण काया का भी हुलसे, 

खोजें इक सागर गहरा सा 

व्यर्थ ताप में क्योंकर झुलसें !


तृप्त हुआ जब मन यह सुग्गा 

बस उसका ही नाम रटेगा, 

कृत-कृत्य हो  जगत में डोले 

जैसे मन्द समीर बहेगा !


या सुवास बनकर फैलेगा  

जगती  के इस सूनेपन में, 

शब्द सहज झरेंगे जैसे 

पारिजात बिखरें  उपवन में !


मंगलवार, सितंबर 24

ख्वाबों में जो मिला है



ख्वाबों में जो मिला है


ख्वाबों में जो मिला है
बनकर हकीकत आये,
कितने किये थे सजदे
कई कुसुम भी चढ़ाये !

खोया नहीं था इक पल
बिछड़ा नहीं था खुद से,
वह छुप गया था भीतर
बाहर ही मन लगाये !

कैलाश का है वासी
पातालों में बसे हम,
रहे द्वार बंद दिल के
धारा कहाँ से जाए !

बिखरता सुवास सा वह
पाहन सा  चुभता अंतर,
भला क्यों मिलन घटेगा
बगीचे नहीं सजाये !

बादल सा भरा बैठा
मरुथल बना यह जीवन,
मन मोर बन के नाचे
तत्क्षण ही बरस जाये !

सुख सुहावनी पवन सा
लुटाता जहाँ विजन हो,
अंतर में जग भरा है
कैसे वह गीत गाये !


मंगलवार, सितंबर 3

झक्क उजाले सा



झक्क उजाले सा


रेशमी धूप सा जो सहलाता है अंतर
वही सूरज पांव मरुथलों में जलाता है

मीठी सुवास सा बहलाता है जो मन को
नुकीले पथ सा वही प्रेम चुभे जाता है

झक्क उजाले सा जो भर देता है आकाश
घन अँधेरे का सबब वही तो बन जाता है

सिवाय हँसने के क्या कहें इन अदाओं पर
 दे एक हाथ दूजे हाथ लिए जाता है


गुरुवार, अगस्त 1

उमग-उमग फैले सुवास इक


उमग-उमग फैले सुवास इक


भीतर ही तो तुम रहते हो
खुद से दूरी क्यों सहते हो,
जल में रहकर क्यों प्यासे हो
खुद ही खुद को क्यों फाँसे हो !

भीतर एक हँसी प्यारी है
सुनी खनक न किसी ने जिसकी,
भीतर फैला खुला आकाश
जगमग जलती ज्योति अनोखी  !

फूट-फूट कर बहे उजाला
छलक-छलक जाये ज्यों प्याला,
उमग-उमग फैले सुवास इक
दहक-दहक ज्यों जल अंगारा !

मस्ती का मतवाला सोता
झर-झर झरता निर्मल निर्झर,
एक अनोखी सी दुनिया है
ईंट-ईंट बनी जिसकी प्यार !

ऐसे उसकी याद झलकती
तारों भरा नीला आकाश,
बिन बदली बरसे ज्यों सावन
बिन दिनकर हो पावन प्रकाश !


सोमवार, सितंबर 18

एक कलश मस्ती का जैसे


एक कलश मस्ती का जैसे

बरस रहा सावन मधु बन कर
या मदिर चाँदनी मृगांक की,
एक कलश मस्ती का जैसे
भर सुवास किसी मृदु छंद की !

जीवन बँटता ही जाता है
अमृत का एक स्रोत बह रहा,
लहराता सागर ज्यों नाचे
अंतर में नव राग उमगता !

टूट गयी जब नींद हृदय की
गाठें खुल-खुल कर बिखरी हैं,
एक अजाने सुर को भर कर
चहूँ दिशाएं भी निखरी हैं !

भीतर बाहर एक वही है 
एक ललक ही प्रतिपल महके,
धरती अंबर एक सदा हैं
मुस्काता नभ वसुधा लहके !

शनिवार, मार्च 11

जीवन स्वप्नों सा बहता है



जीवन स्वप्नों सा बहता है 


आज नया  दिन 
अग्नि समेटे निज दामन में 
उगा गगन में अरुणिम सूरज 
भर उर में सुर की कोमलता 
नये राग छेड़े कोकिल ने 
भीगी सी कुछ शीतलता भर 
नई सुवास हवा ले आयी
मंद स्वरों में गाती वसुधा 
 पल भर में हर दिशा गुँजाई 
उड़ी अनिल सँग शुष्क पत्तियां 
कहीं झरे पुहुपों के दल भी 
तिरा गगन में राजहंस इक 
बगुलों से बादल के झुरमुट 
नीला आसमान सब तकता 
माँ जैसे निज संतानों को 
जीवन स्वप्नों सा बहता है 
भरे सुकोमल अरमानों को...

मंगलवार, मार्च 3

उससे भी

उससे भी



सागर की अतल गहराई में
जहाँ छिपे हैं हजारों मोती
जिनकी आभा से जगमगाती है जल नगरी
उससे भी चमकदार है तेरा नाम !

सुदूर नील आकाश की ऊँचाई में
जहाँ चमकते हैं हजारों सितारे
जिनकी दमक लजाती है सूर्य को
उससे भी उजला है तेरा रूप !

किसी अनजान द्वीप से आती है सुवास
अनाम फूलों से
जिसे कभी छुआ नहीं किसी नासापुट ने
उससे भी ज्यादा सुवासित है तेरा स्मरण !  

सोमवार, नवंबर 25

मनु की सन्तान को


मनु की सन्तान को


मन की झील में
आत्मकमल खिलाना है
 आदतों व संस्कारों की मिट्टी है जहाँ
वहीं से भेध कर
सुवास को जगाना है
किन्हीं रंगों को सजाना है
 छिपा है एक स्रोत मधुर
अतल गहराई में
माना होंगी चट्टानें भी मध्य में
कठिन होगी यात्रा
पर जो अपना ही है सदा से
वह सरसिज तो बाहर लाना है
अंतस की झील में जलज बसाना है 

सोमवार, जून 3

बरसे नभ से मधुरिम सागर

बरसे नभ से मधुरिम सागर


मचल रहा बाहर आने को
ठांठे मारे एक समुन्दर,
आतुर है सुवास अनोखी
चन्दन वन सी अगन सुलगकर !

नदी बह रही ज्योति उर्मि
भीतर सूरज कई छिपे हैं,
एक शहद में भीगी वाणी
मधुर गीत अभी कहाँ कहे हैं !

झरते कोमल कुसुम कुदुम्बी
वैजन्ती माला की झालर,
जगमग हीरा कोई चमकता
बरसे नभ से मधुरिम सागर !

खाली जब अंतर आकाश
ज्योति बही जाती है अविरल
उसी एक की खुशबू फैली
वही करेगा अंतर अविकल !