जीवन मिलता है पग-पग पर
एक शृंखला चलती आती
अंतहीन युग बीत गए हैं,
इच्छाओं को पूरा करते
हम खुद से ही रीत गये हैं !
प्रतिबिंबों से आख़िर कब तक
खुद को कोई बहला सकता,
सूरज के सम्मुख ना आए
मन पाखी मरने से डरता !
जीवन मिलता है पग-पग पर
कब तक रहें गणित में उलझे,
हर पूजा की क़ीमत चाहें
दुविधा उर की क्योंकर सुलझे !
धूप, हवा, जल, अम्बर बनकर
बँटता ही जाता है रहबर,
आनंदित होते रहते हम
छोटे से दामन में भरकर !
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार(१७-१२ -२०२१) को
'शब्द सारे मौन होते'(चर्चा अंक-४२८१) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
बहुत बहुत आभार!
हटाएंप्रतिबिंबों से आख़िर कब तक
जवाब देंहटाएंखुद को कोई बहला सकता,
सूरज के सम्मुख ना आए
मन पाखी मरने से डरता !...मन को छूती सुंदर रचना ।
बहुत खूब अनीता जी, आध्यात्म को अलग ही उच्चस्तर पर ले जाती कविता ...
जवाब देंहटाएंप्रतिबिंबों से आख़िर कब तक
खुद को कोई बहला सकता,
सूरज के सम्मुख ना आए
मन पाखी मरने से डरता !
स्वागत व आभार अलकनंदा जी !
हटाएंपूरी करते करते जीवन बीत जाता है ... पर अंकुश लगाने से भी तो मन रीत जाता है ...
जवाब देंहटाएंये दुविधा ही शायद कम्जोरी है जिसे साधना होता है ...
बहुत भाव पूर्ण ...
बेहतरीन रचना आदरणीया।
जवाब देंहटाएंमन को छूती पंक्तियाँ...
जवाब देंहटाएंबहुत ही सरहानीय सृजन आदरणीय मैम
जवाब देंहटाएंदिगम्बर जी, अनुराधा जी, विकास जी और मनीषा जी, आप सभी का स्वागत व आभार !
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