हो निशब्द जिस पल में अंतर
शब्दों से ही परिचय मिलता
उसके पार न जाता कोई,
शब्दों की इक आड़ बना ली
कहाँ कभी मिल पाता कोई !
ऊपर-ऊपर यूँ लगता है
शब्द हमें आपस में जोड़ें,
किन्तु कवच सा पहना इनको
बाहर ही बाहर रुख मोड़ें !
भीतर सभी अकेले जग में
खुद ही खुद से बातें करते,
एक दुर्ग शब्दों का गढ़ के
बैठ वहीं से घातें करते !
खुद से ही तो लड़ते रहते
खुद को ही तो घायल करते,
खुद को सम्बन्धों में पाके
खुद से ही तो दूर भागते !
हो निशब्द जिस पल में अंतर
एक ऊष्मा जग जाती है,
दूजे के भी पार हुई जो
उसकी खबर लिए आती है !
दिल से दिल की बात भी यहाँ
उसी मौन में घट जाती है,
शब्दों की सीमा बाहर है
भीतर पीड़ा छंट जाती है !
कोरे शब्दों से न होगा
मौन छुपा हो भीतर जिनमें,
वे ही वार करेंगे दिल पर
सन्नाटा उग आया जिनमें !
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (29-12-2021) को चर्चा मंच "भीड़ नेताओं की छटनी चाहिए" (चर्चा अंक-4293) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत आभार !
जवाब देंहटाएंऊपर-ऊपर यूँ लगता है
जवाब देंहटाएंशब्द हमें आपस में जोड़ें,
किन्तु कवच सा पहना इनको
बाहर ही बाहर रुख मोड़ें !
यथार्थ को उजागर करता गहन सृजन ।
स्वागत व आभार मीना जी!
हटाएंकोरे शब्दों से न होगा
जवाब देंहटाएंमौन छुपा हो भीतर जिनमें,
वे ही वार करेंगे दिल पर
सन्नाटा उग आया जिनमें
सुंदर रचना🙏
स्वागत व आभार अंकित जी!
हटाएंभीतर सभी अकेले जग में
जवाब देंहटाएंखुद ही खुद से बातें करते,
एक दुर्ग शब्दों का गढ़ के
बैठ वहीं से घातें करते !
हकीकत को बयां करती बहुत ही खूबसूरत रचना😍
दिल से दिल की बात भी यहाँ
जवाब देंहटाएंउसी मौन में घट जाती है,
शब्दों की सीमा बाहर है
भीतर पीड़ा छंट जाती है
भीतर की पीडा। वेहतरीन रचना।
बहुत सुन्दर
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