सोमवार, सितंबर 11

धारा इक विश्वास की बहे

धारा इक विश्वास की बहे

बुना हुआ है दो धागों से  

ताना-बाना इस जीवन का, 

इक आनंद-प्रेम का वाहक 

दूजा, जंगल है यादों का !


दोनों हैं दिन-रात की तरह 

 पुष्प गुच्छ हों गुँथे हुए ज्यों, 

किसके हो लें, किससे पोषित 

यह चुनाव करना है दिल को !


तज दे सारे दुख, भय, विभ्रम 

मुक्त गगन में विहरे खग सा, 

मन को यह निर्णय करना है 

जंजीरों से बंधा रहे या ! 


जहाँ न कोई दूजा, केवल 

धारा इक विश्वास की बहे,

सुरति निरंतर वहीं हृदय की 

कल-कल स्वर में सहज ही कहे !


वही ज्ञेय है, लक्ष्य भी वही 

जहाँ हो रहा नित्य ही मिलन,

प्रीति-सुख से मिले प्रज्ञा जब 

शिव-गिरिजा का होता नर्तन !


12 टिप्‍पणियां:

  1. जहाँ न कोई दूजा, केवल
    धारा इक विश्वास की बहे,
    आनंद और प्रेम में विश्वास की नींव मनुष्य को मनुष्यता तक ले जाती है।

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    1. कितना सुंदर और सटीक कहा है आपने जिज्ञासा जी!

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  2. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना मंगलवार १२ सितंबर २०२३ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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  3. वाह!!! अनीता जी ,बहुत खूब.....दो धागों से बुना हुआ..एक आनंद का धागा और दूसरा यादों का जंगल .... व!!

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    1. स्वागत व आभार शुभा जी, अक्सर हम अतीत के कारण वर्तमान को देख नहीं पाते !

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  4. बहुत खूब ... निर्णय तो मन के ही होते हैं सभी ... पर क्या , कम और कैसे येअही विषय है चिंतन का ... सुन्दर रचना ...

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  5. जहाँ न कोई दूजा, केवल

    धारा इक विश्वास की बहे,

    सुरति निरंतर वहीं हृदय की

    कल-कल स्वर में सहज ही कहे !
    वाह!!! बहुत सुंदर।🙏🙏

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