पंछी इक दिन उड़ जाएगा
जरा, रोग की छाया डसती
मृत्यु, मुक्ति की आस बँधाये,
पंच इंद्रियाँ शिथिल हुई जब
जीवन में रस, स्वाद न आये !
कुछ करने की चाह न जागे
फिर भी आशा देह चलाती,
जीवन की संध्या बेला में
पीड़ा उर में रहे सताती !
धन का मोह, मोह पदार्थ का
अंतिम क्षण तक रहता जकड़े,
ख़ुद की महिमा समझ न पाया
मानव मरते दम तक अपने !
ज्वाला क्रोध जलाया करती
पहन मुखौटा जग से मिलता,
कभी-कभी ही सहज प्रेम से
अंतर कमल जीव का खिलता !
या निर्मल प्रेम संग मन में
काँटा भीतर चुभता रहता,
भय का एक आवरण मन को
भ्रमित करे, सुख हरता रहता !
सौ-सौ कष्ट सहे जाता है
किंतु मोह अतीव जीवन से,
पंछी इक दिन उड़ जाएगा
बंधा हुआ जीव तन-मन से !
मोह मिटेगा, शांति मिलेगी,
तोड़ा जब बंधन माया का,
झुकी कमर, बलहीन हुआ तन
पुनर्जन्म होगा काया का !
ख़ुशी-ख़ुशी जग विदा करेगा
पाथेय प्रेम संग बांध दे,
पथिक चला जो नयी राह पर
शुभता से उसका मन भर दे !
सुन्दर सृजन
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" रविवार 28 अप्रैल 2024 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! <
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार यशोदा जी !
हटाएंबहुत बहुत सुन्दर सराहनीय
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंयथार्थ सत्य को दर्शाती बहुत ही सुन्दर कविता।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
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