मनुज प्रकृति से दूर गया है
वृक्षों के आवाहन पर ही
मेघा आकर पानी देते,
कंकरीट के जंगल आख़िर
कैसे उन्हें बुलावा दे दें !
सूना सा नभ तपती वसुधा
शुष्क हुई हैं झीलें सारी,
कहाँ उड़ गये प्यासे पंछी
तोड़ रही है दम हरियाली !
खलिहानों में प्लॉट कट रहे
माँ सी धरती बिकती जाती,
अन्नपूर्णा जीवन दायिनी
उसकी क़ीमत आज लगा दी !
बेच-बेच कर भरी तिजोरी
जल आँखों का सूख गया है,
पत्थर जैसा दिल कर डाला
मनुज प्रकृति से दूर गया है !
जगे पुकार भूमि अंतर से
प्रलय मचा देगा सूरज यह,
अंश उसी का है यह धरती
लाखों वर्ष लगे बनने में !
जहां उगा करती थी फसलें
कितने जीव जहां बसते थे,
सीमेंट बिछा, लौह भर दिया
मानो कब्र खोद दी सबकी !
हरे-भरे वृक्षों को काटा
डामर की सड़कें बिछवायीं,
मानव की लिप्सा सुरसा सी
पर चतुराई काम न आयी !
बेबस किया आज कुदरत ने
तपती सड़कों पर चलने को,
लू के दंश झेलता मानव
मान लिया मृत जीवित भू को !
अब भी थमे विनाश का खेल
जो शेष है उसे सम्भालें,
पेड़ उगायें उर्वर भू पर
पूर्वजों की राह अपनायें !
एक शाख़ लेने से पहले
पूछा करते थे पेड़ों से,
अब निर्जीव समझ कर हम तो
कटवा देते हैं आरी से !
क्रोध, घृणा, लालच के दानव
समरसता को तोड़ रहे जब,
छल-छल, रिमझिम की प्यारी धुन
सुनने को आतुर हैं जंगल!
पेड़ और जंगल एक बानगी भर है आज के मनुष्य के लालसा से लबालब भरे जीवन के हर पहलू की यही कहानी है |
जवाब देंहटाएंसही है, आश्चर्य तो यही है कि आख़िर मानव पाना क्या चाहता है दो पल इस पर चिंतन भी नहीं करता
हटाएंअपने स्वार्थ में अंधा मानव प्रकृति की आत्मा नष्ट करने को आतुर है।
जवाब देंहटाएंसादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार ३० अप्रैल २०२४ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंसही है ,मनुज प्रकृति से दूर होता जा रहा है
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार शुभा जी !
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