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मंगलवार, मई 1

अर्थवान हों शब्द हमारे



अर्थवान हों शब्द हमारे

शब्दों का संसार सजाया
मन जिसमें डूबा उतराया,
पहुँचा कहीं न लोटपोट कर
वैसे का वैसा घर आया !

शब्दों की लोरी बन सकती
तंद्रा भीतर जो भर देती,
नहीं जागरण संभव उससे
नींद को वह गहरा कर देती !

शब्दों को तलवार बनाया
इनको ही तो ढाल बनाया,
मोती कुछ लेकर आयेंगे
शब्दों का इक जाल बनाया !

शब्द अकेले क्या कर सकते
यदि  न अर्थ उनमें भर सकते,
अर्थ बिना न कोई कीमत
शब्द नहीं पीड़ा हर सकते !

अर्थ वही जो अनुभव देता
प्रामाणिक जीवन कर देता,
परिवर्तन कर अणु-अणु का
भावमय अंतर कर देता !

रविवार, फ़रवरी 5

ऊपर हँसते भीतर गम था


ऊपर हँसते भीतर गम था


जाने कैसी तंद्रा थी वह
कितनी गहरी निद्रा थी वह,
घोर तमस था मन पर छाया
ढके हुए थी सब कुछ माया !

एक विचारों का जंगल था
भीतर मचा महा दंगल था,
खुद ही खुद को काट रहे थे
कैसा फिर ? कहाँ मंगल था !

अपनों से ही की थी दुश्मनी
कभी किसी सँग बात न बनी,
एक अबूझ डर भीतर व्यापा
भृकुटी रही सदा ही तनी !

एक नर्क का इंतजाम था
आधि-व्याधि का सरंजाम था,
ऊपर हँसते भीतर गम था
भावनाओं का महा जाम था !

लेकिन कोई भीतर तब भी
जाग रहा था देखा जब भी
बड़ा सुकून मिला करता था
बाहर लेकिन दुःख था अब भी

धीरे-धीरे वह मुस्काया
पहले पहल स्वप्न में आया,
सहलाया रिसते जख्मों को
फिर तो अपने पास बुलाया !

एक झलक अपनी दिखलाई
लेकिन फिर न पड़े दिखाई,
एक खोज फिर शुरू हो गयी
भीतर की फिर दौड़ लगाई !

कही प्रार्थना अश्रु बहाए
निशदिन मन उसको ही बुलाए,
दिन भर काम में भूल गया हो
पर नींदों में वही सताए !

शनैः शनैः फिर राह मिल गयी
आते-जाते कली खिल गयी,
सुरभि बिखेरे अब विकसित हो
जब प्रमाद की चूल हिल गयी !

अब तो मीत बना है मन का
भेद बड़ा पाया जीवन का,
उससे मिलने ही हम आये
यही लाभ है सुविधा धन का !